भूमिका
‘योग वासिष्ठ’ भारतीय मनीषा के प्रतीक सर्वोत्कृष्ट ग्रंथों में है। विद्वत्जन इसकी तुलना ‘भगवद् गीता’ से करते हैं। दोनों उपदेश प्रधान ग्रंथ हैं। भगवद् गीता में स्वयं नारायण (श्रीकृष्ण) नर (अर्जुन) को उपदेश देते हैं जबकि ‘योग वासिष्ठ’ में नर (गुरु वसिष्ठ) नारायण (श्रीराम) को उपदेश देते हैं। दोनों ही ग्रंथों में अर्जुन और श्रीराम के माध्यम से दिए गए उपदेश मानवता के लिए कल्याणकारी हैं, उसे निराशा और अवसाद से उबारते हैं और उसे मूल ध्येय की ओर अग्रसर करते हैं।
सुख और दुख, जरा और मृत्यु, जीवन और जगत, जड़ और चेतन, लोक और परलोक, बंधन और मोक्ष, ब्रह्म और जीव, आत्मा और परमात्मा, आत्मज्ञान और अज्ञान, सत् और असत्, मन और इंद्रियाँ, धारणा और वासना आदि विषयों पर कदाचित् ही कोई ग्रंथ हो जिसमें योग वासिष्ठ की अपेक्षा अधिक गंभीर चिंतन तथा सूक्ष्म विश्लेषण हुआ हो। अनेक ऋषि-मुनियों के अनुभवों के साथ-साथ अनगिनत मनोहारी कथाओं के संयोजन से इस ग्रंथ का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। स्वामी वेंकटेसानन्द जी का मत है कि इस ग्रंथ का थोड़ा-थोड़ा नियमित रूप से पाठ करना चाहिए। उन्होंने पाठकों के लिए 365 पाठों की माला बनाई है। प्रतिदिन एक पाठ पढ़ा जाए। पाँच मिनट से अधिक समय नहीं लगेगा। व्यस्तता तथा आपाधापी में उलझा व्यक्ति भी प्रतिदिन पाँच मिनट का समय इसके लिए निकाल सकता है। स्वामी जी का तो यहाँ तक कहना है कि बिना इस ग्रंथ के अभी या कभी कोई आत्मज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता।
स्वामी जी ने इस ग्रंथ का सार प्रस्तुत करते हुए कहा है कि बिना अपने को जाने मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। मोक्ष प्राप्त करने का एक ही मार्ग है आत्मानुसंधान। आत्मानुसंधान में लगे अनेक संतों तथा महापुरुषों के क्रियाकलापों का विलक्षण वर्णन आपको इस ग्रंथ में मिलेगा।
प्रस्तुत अनुवाद स्वामी वेंकटेसानन्द के अंग्रेजी अनुवाद ‘सुप्रीम योग’ का हिन्दी रूपांतरण है। स्वामी जी का अंग्रेजी अनुवाद 1972 में पहली बार छपा था। निश्चय ही यह अनुवाद चिंतन, अभिव्यक्ति और प्रस्तुति की दृष्टि से अनुपम है। विदेश (आस्ट्रेलिया) में छपने के कारण यह भारतीय पाठकों के समीप कम ही पहुँच पाया। हिंदी पाठक तो इससे अभी तक वंचित ही रहे हैं। इसकी भाषा और शैली ने मुझे ऐसा मुग्ध किया कि मैं इसके हिंदी रूपांतरण का लोभ संवरण न कर सका। स्वामी जी के चिंतन, शब्द-चयन और भाषा-प्रवाह की झलक भी इस रूपांतरण से पाठकों को मिल सकी तो मैं अपना परिश्रम सफल समझूँगा। सुरुचिपूर्ण टंकन के लिए श्री अनिल कुमार सिंह को धन्यवाद। भाई अशोक महेश्वरी जी ने इसे भव्य रूप दिया है, उसके लिए आभार व्यक्त करता हूँ।
काशी के प्रतिष्ठित नागरिक तथा ‘आर्ट ऑफ लीविंग’ के प्रशिक्षक श्री राकेश टंडन जी अंग्रेजी अनुवाद की पुस्तक लेकर मेरे पास आए थे और कहने लगे कि श्री श्री रविशंकर जी की हार्दिक इच्छा है कि इस पुस्तक का हिंदी में अनुवाद हो। संभवतः उस महान आत्मा का ही आशीर्वाद है कि पुस्तक आप सबके हाथों में है। मैं गुरुजी को नमन करता हूँ और टंडन जी को हार्दिक धन्यवाद।
बदरीनाथ कपूर शब्दलोक 47, लाजपत नगर वाराणसी-221002
अक्षय तृतीय, 19 अप्रैल, 2007