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@arijitx
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लोगों को शायद ऐसा आभास होता रहा कि उनके कष्टों का निवारण करने के लिए , पृथ्वी का बोझ घटाने के लिए , और जीवन को फिर से सन्तुलित करने के लिए , एक अवतार पुरुष उनके बीच उपस्थित है
इस देश के साधारण जन के मानस में पैठकर , उसके चित्त व काल को समझकर ही , इस देश के बारे में कुछ सोचा जा सकता है
हमें उसे पाने के लिए अनेक बौद्धिक प्रयत्न करने पडेंगे
भारतीयता की मर्यादाओं से मुक्त हुए ये लाखेक आदमी जाना चाहेंगे तो यहां से चले ही जाएंगे
पश्चिम व विशेषत: लन्दन के उस समय के विद्या संस्थानों के अनुरूप ही भारत के इन नए विद्या संस्थानों का गठन किया गया था , और वहीं की विद्या धाराओं से किसी प्रकार अपनी विद्याओं को जोड़ना ही शायद इनका प्रयोजन था
इस पर राज्यपाल ने आचार्य से कहा कि वर्णव्यवस्था की बात तो आप मत ही करें
अभी पिछले दिनों सारनाथ में एक गोष्ठी हुई थी
तब सीता उन्हें कहती हैं कि यह क्या हो गया है आपको ? वन में तो ऐसे नहीं रहा जाता
वैसे हर सभ्यता की सृष्टि की अपनी एक गाथा होती है , और वह गाथा शायद उस सभ्यता की मूल वृत्तियों को बहुत गहराई से प्रभावित किया करती है
पर प्रत्येक बड़े आवर्तन के भीतर अनेक छोटे आवर्तन-प्रत्यावर्तन होते रहते हैं , बार बार सृष्टि की उत्पत्ति और विनाश होते रहते हैं
और एक ही सभ्यता कभी अकर्मण्यता की ओर और कभी गहन कर्मठता की ओर अग्रसर दिखाई देती है
अपरा का सर्वदा परा के आलोक में नियमन करते रहना चाहिए
करुणा , दया , न्याय , आदि जैसे भावों को भूल जाना तो कर्मफल के सिद्धांत का उद्देश्य नहीं हो सकता
क्योंकि व्याख्याएं तो समय व सन्दर्भ सापेक्ष हुआ करती हैं
लेकिन निर्धारित दिशा में सभ्यता को चलाने का काम गृहस्थों का होता है
यह भी सत्य हो सकता है कि जिन प्रमुख अभिजनों ने गांधीजी का नेतृत्व स्वीकार किया और उसके द्वारा राज-सत्ता एवं राजनैतिक सत्ता प्राप्त की , वे गांधीजी की भारतीय समाज की समझ को बहुत गंभीरता से नहीं ग्रहण करते थे और वे यह स्वीकार कर पाने में भी असमर्थ थे कि वैसा कोई भारतीय समाज आधुनिक विश्व में व्यवहार्य हो सकता है
खुदा' और 'ईश्वर' की , एकपंथवाद और सर्वपंथ-मान्यता की अवधारणाओं में तात्विक अंतर क्या है , और एकता का आधार क्या है , इस पर आध्यात्मिक-बौद्धिक विमर्श न आचार्य विद्यारण्य के संरक्षण में या नेतृत्व में कहीं हुआ , न ही समर्थ गुरु रामदास के
पंचदशी और दासबोध को पढ़ने पर यह रंचमात्र नहीं पता चलता कि इस्लाम की किन्हीं आधारभूत अवधारणाओं को कोई चुनौती समझा जा रहा है
अच्छा हो , यदि वे पवित्र गंगा तट पर जहां पर वे साधना किया करते थे वहीं स्थल निर्मित कर सुरक्षित भूमिस्थ कर दिये जायें , इससे उस अपराध का कुछ मार्जन हो जायेगा
अत: पश्चिम में वे तर्कपूर्ण प्रतिपादनों से श्री रामकृष्ण की विचारधारा का प्रसार चाहते हैं
राजेन्द्रलाल मित्र एक देशभक्त थे
सन् १८८० से १८९४ ई . तक देशभर में , विशेषत: उत्तर और मध्य भारत में प्रबल गोरक्षा आंदोलन उठा
उन्हीं दिनों यह माना गया कि यह विधि भारत से ग्रहण की गई
अंतिम बार ग्यारहवीं शती ईस्वी में नार्मन जाति ने वहां आक्रमण किया और वहां के समाज को पराजित कर अपने अधीन कर लिया
उन्हीं व्यवस्थाओं का क्रमिक विकास आधुनिक ब्रिटिश साम्राज्य के रूप में हुआ
इसी प्रकार लगभग १८३० तक ब्रिटिश सैनिकों को कोई गंभीर मानी जाने वाली गलती करने पर ( विशेष रूप से तैयार ) ४००-५०० कोडे लगाये जाने की बात सामान्य थी
१३८५ में इंग्लैंड में बहुत बडी मात्रा में किसान विद्रोह हुए
भारत का एक बड़ा भाग बारहवीं शती ईस्वी से लगातार इस्लाम - अनुयायियों के आक्रमण से टकरा रहा था
१८८२ ईस्वी में डॉ . जी . डब्ल्यू , लिटनर ने पंजाब की सन् १८५० की स्थिति के बारे में लिखा कि अंग्रेजी आधिपत्य में आने से पहले पंजाब में भी लगभग हर गांव में एक स्कूल था
फारसी-अरबी स्कूलों में मुसलमान शिक्षकों के साथ ब्राह्मण , कायस्थ , दैवज्ञ और गंध बनिक जाति के भी शिक्षक हैं और छात्र भी विविध हिन्दू जातियों के तथा मुसलमान हैं
लिटनर ने हिसाब लगाकर लिखा कि १८५० ईस्वी में पंजाब पर ब्रिटिश आधिपत्य से पूर्व कम से कम ३ लाख ३० हजार छात्र- छात्राएं पंजाब में पढ़ रहे थे
इससे इस्पात बनने में समय कम लगता है , जबकि ब्रिटेन में प्रचारित पुरानी विधि में १४ से २० दिन लगते हैं
यदि वर्ष में ३०-४० सप्ताह इन पर कार्य होता होगा , तो इनमें से प्रत्येक की उत्पादन क्षमता २० टन बढिया इस्पात प्रतिवर्ष की थी
भारतीय बुनकरों का कौशल विश्व प्रसिद्ध था
एडिनबर्ग के गणित विभागाध्यक्ष प्रो . जान प्लेफेयर ने विस्तृत जांच पडताल के बाद माना कि ईसा पूर्व ३१०२ सन् में आकाशीय पिंडों की स्थिति के बारे में भारतीयों का गणित ज्योतिषीय कथन हर प्रकार से सही दिखता है
और जब कोई कंपनी , विशेषत: ब्रिटिश कंपनी सचमुच किसी क्षेत्र को जीतना और उस पर राज करना शुरू कर देती थी , तो व्यवहारत: वास्तविक नियंत्रण उस विजित क्षेत्र पर ब्रिटिश राज्य ही करने लगता था
हर छत्रम् के साथ मंदिर और पाठशालाएं हैं
चिंगलपेट जिले से संबंधित विवरण १७६०-१७७० ई . के आसपास २ , ००० गाँवों के एक सर्वे से एकत्र किये गये थे
मिरासदार उन्हें कहते हैं , जिनका भूमि पर स्थायी अधिकार हो
अत: उन्होंने भारतीय विद्या , विज्ञान , संस्कृति , धर्म , शिल्प , कला , साहित्य , कृषि समेत समस्त साधनों एवं जैव-द्रव्यों ( बायोमास ) तथा बौद्धिक-आध्यात्मिक प्रवृत्तियों को अपने नियंत्रण में लेकर उन्हें अपने अनुरूप ढाला
दक्षिण यूरोप के अनेक देशों पर एक समय इस्लाम का आधिपत्य रहा और वे उसके द्वारा अधीन रखे गये
संभवत: जापान का उदाहरण भारत के लिए और अधिक उपयोगी हो
भारत में गांधीजी ने जब समाज का पुनस्संगठन शुरू किया , तब भी यही प्रक्रिया अपनायी
भारतीय किसानों एवं ग्रामीणों की जीवनदृष्टि और समाजदृष्टि से उनका अपरिचय रहा
उत्तरी भारत के अभिजन विदेशी आक्रामकों के प्रति दास्यभाव में अधिक बँध गये दिखते हैं
इन लोगों में राष्ट्रवाद था , वे राष्ट्रको सुदृढ देखना चाहते थे
यूरोपीय सभ्यता और भारतीय सभ्यता के आधार , लक्ष्यों , कार्यपद्धति के अन्तर को समझकर उसे व्यापक बोध का आधार बनाने का प्रयास गांधीजी ने किया
इसके विपरीत यूरोपीय चित्त परम्परा के ये मुख्य आधार दिखते हैं - ( १ ) सत्यदूत ( चिन्तक , मैसंजर , प्रभुपुत्र-विशेष आदि ) जिसके माध्यम से ही द ट्रथ , द गुड , द ब्यूटी की सही समझ सम्भव है
विश्व के समस्त विचार अपने व्यवस्था क्रम के अन्तर्गत रखने का दायित्व यूरोपीय दर्शन और मानविकी विद्याओं का है
इस समाज को रूपान्तरित करना है , तभी वह वैज्ञानिक प्रबन्ध के योग्य बनेगा
हमारे अधिकांश आधुनिक शिक्षाविद , अकादमीशियन , आधुनिक विद्वान , लेखक , आदि इस पश्चिमीकृत हिस्से का विद्या अंग है
सन् १७५० से १८५० ईस्वी तक तो भारत में व्यवस्थाओं , खेती व शिल्प उद्योग आदि के तंत्र और सामाजिक , शैक्षणिक व सांस्कृतिक संस्थाओं के बिगड़ने का समय ही रहा
भारत में १२-१५ करोड़ परिवारों में से केवल दो लाख परिवार ही भारत की हर तरह की व्यवस्था की देखभाल करते हैं , यह कोई निराली बात नहीं है
देसी आम का स्थान कलमी आम ने लिया है , अमरुद का स्थान सेब ने
तब ऐसा तो शायद अवश्य हो सकता है कि भारत के इस 'फायर वॉकिंग' का सार्वभौमीकरण हो जाये और वह विश्व के औलम्पिक्स का एक बड़ा खेल बन जाये
इसी सदी में महात्मा गांधी ने स्वतन्त्रता संग्राम के समय हमारे में से अधिकांश को इन 'थियेरीज' अवधारणाओं और संरक्षण से निकाल लिया था
हमारे अभिजनों और शासक वर्ग को विद्याओं की समझ ही नहीं रही
संस्थाओं के रूप तो बदलते ही रहते हैं और फिर अनन्तरूपता तो हमारी जीवनदृष्टि का मान्य तत्त्व है
अपने राजनीतितंत्र ( पोलिटी ) के पुनर्गठन की प्रक्रिया में हमें समाज की विविध इकाइयों के आज के सम्बन्ध बदलने होंगे तथा अपनी मान्यताएं भी विवेक की कसौटी पर कसते रहनी होंगी
समाज के बिखराव के दौर में गलतफहमियाँ बढी और भ्रान्तियां फैलीं
ऐसा कहा जाता है कि यूरोप ने छपाई की कला और प्रयोग विधि , नाविकों का कम्पास और उसकी प्रयोगविधि , बारुद बनाने का शास्त्र और विधि तथा कागज बनाने की विधि १३ वीं , १४ वीं शताब्दी में चीन से सीखी
बताते हैं कि जब ये २० इंजन जापान पहुँचे तो जापानियों ने उसमें से एक इंजन को पूरी तरह से खोल डाला और उसके सब कलपुर्जे भलीभांति देख-समझ तथा जाँच लिये और फिर उसी रूप में उन्हें जोड दिया
हमारी जो आत्मछवि है , वह भी यूरोपीय 'इंडोलॉजी' के विद्वानों द्वारा गढी गई छवि है , जो उन्होंने अपने ही प्रयोजन से रची थी
चीटियों , कौवों , कुत्तों के लिए अंश निकालने , बन्दरों को चने आदि खिलाने , गायों की सेवा करने , सांड़ आदि को मुक्त छोड़ने , मछलियों को खिलाने , नदियों के प्रति आदर और श्रद्धा का भाव , तालाब , कुएं , बावड़ियाँ बनवाने को पुण्य कर्म मानना , चिड़ियों तथा विविध पक्षियों को चुगने के लिए दाने डालना; शेर , मगर जैसे भयंकर माने जाने वाले जीवों के लिए भी गहरी आत्मीयता तथा परस्परता का भाव रखना और उनसे किसी अतिरंजित भय को न पालना , सांप को दूध पिलाना , शादीविवाह में नदियों-बावड़ियों-कुओं आदि को पूजना और न्यौतना-ये सब इसी भारतीय जीवन दृष्टि के अभिन्न अवयव हैं
हमारा पुलिसबल भी समाज को भयभीत रखकर ही व्यवस्था की रक्षा कर पाना सम्भव समझने लगा है
राज्यसंस्था की दंडशक्ति का लक्ष्य केवल दुष्टता को त्रास देना होता है जिससे समाज में स्वधर्मपालन के लिए अभय और आत्मीयता का परिवेश सुदृढ़ बने
भारत की सनातनता एक तरह से भारतीय प्रवाह में रही , उसके ग्रन्थों व स्थिरता में नहीं
स्वराज आने का लक्ष्य यह था कि हम भारत के अपने सन्दर्भ को फिर से पायें तथा बिखरे और रौंदे हुए भारतीयता के लाखों टुकड़ों को भारत के सन्दर्भ से , फिर से जोड़ें
गांधी आर पार लड़ाई की चुनौती दे डालते हैं
जबकि १८ वीं सदी के भारत में ५-७ से ज्यादा जातियां अछूत नहीं थीं
१९०५ की स्वदेशी की बंगाल वाली विचारधारा सतह पर ही थी
१९११ की जनगणना में पंजाब में १७०० खानों में जाट बंटे हैं
१९१५-१६ में महात्मा गांधी ने यह जो चरखे की बात पकड़ी तो गुजरात में उस वक्त चर्खा का चलन नहीं रहा होगा
१७८४ में मनुस्मृति का पहली बार अंग्रेजी अनुवाद हुआ
लड़ाई के दौरान कांग्रेस का ढाँचा ब्रिटिश साम्राज्य के ढांचे पर बना
पश्चिम ने अपने बारे में बहु प्रचारित किया कि यूरोपीय मनुष्य का इतिहास और उसकी प्रेरणायें तथा सैद्धांतिक निरूपण सार्वभौम हैं
थॉमस मुनरो के अनुसार बेलारी जिले में उच्च , मध्यम और निम्न वर्गों में प्रतिव्यक्ति उपभोग-ढांचा १७:९:७ के अनुपात में था
इसके साथ ही , घर पर बड़ी संख्या में शेष बच्चे पढ़ रहे थे ( मद्रास शहर में की गई एक गणना के अनुसार शालाओं में जाने वाले बच्चों की संख्या की गई एक गणना के अनुसार शालाओं में जाने वाले बच्चों की संख्या से चार गुने बच्चे घरों में पढ़ रहे थे )
किन्तु साथ ही इस प्रक्रिया ने व्यापक पैमाने पर जंगलों का विनाश , भूमि क्षय तथा बाढ़ और सूखे की लगातार वृद्धि भी की है
आराम महत्त्वपूर्ण बात नहीं है , तब भी यदि इस मामले में तनिक भी विचार से काम लिया जाता , तो अकेला यह तथ्य ही इन शौचालयों की स्थापना को रोक देने को पर्याप्त होता है कि इस यूरोपीय ढंग के शौचालयों में बहुत अधिक पानी ‘फ्लश' के लिये जरूरी होता है और पानी मोटे तौर पर हिन्दुस्तान में एक दुर्लभ वस्तु ही है
द्वितीयतः , जो प्रशासनिक पद्धति अंग्रेजों ने मूलतः १७७० से १८३० के दौरान अपने विजित क्षेत्र को शासित करने के लिए रची , उसे बनाये रख कर आगे उसमें प्रचुर वृद्धि तथा विस्तार करते रहे
इसका परिणाम यद्यपि बिल्कुल निराशाजनक नहीं रहा है , तथापि ऐसा भी नहीं है कि हम दावा कर सकें कि हम एक पश्चिम जैसा समाज बनाने जा रहे हैं
यहाँ तक कि आज का किसान भी नई संकर खेती और उसकी जरूरतों के सन्दर्भ में कम सृजनात्मक और नवाचार में कम समर्थ हो गया है
यदि भारत को एक सभ्य समाज के रूप में बचे रहना है तो उसे वर्तमान प्रक्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न आज की इस किंकर्तव्य विमूढ़ता की दिशा में से कोई और रास्ता निकालना होगा
१९ वीं शताब्दी में तथा २० वीं शताब्दी के आरम्भ में भी यानि उस सम्पूर्ण अवधि में भी जब भारतीय किसान की अपने खेतों में निवेश की क्षमता निम्नतम बिन्दु तक पहुँचा दी जा चुकी थी , और उसके कृषि औजार तथा मालमवेशी बड़ी मात्रा में बरबाद कर दुर्दशाग्रस्त बनाये जा चुके थे , किसान ने देश को पर्याप्त अनाज देकर जीवित रखा , यह तथ्य उसकी सामर्थ्य और प्रतिभा का पर्याप्त दृष्टान्त है
किन्तु भारत के स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए यह स्वीकार करना होगा कि ये नजरिये वगैरह अब प्रासंगिक नहीं हैं और वे वस्तुतः भारतीय समाज के तानेबाने को ही नष्टभ्रष्ट करने वाले हैं
इसका सबसे ज्यादा असर परिवार पर पड़ा है
आज के पश्चिम में परिवार कुछ कुछ सराय जैसा दिखाई देता है जिसमें रहने वाले लोगों में कुलीय भावना जैसी कोई चीज नहीं होती
तथा १९३०-३१ के नमक सत्याग्रह के दौरान वह काफी गहरी दिखाई देती है
इन समझौतों का मुख्य उद्देश्य उन लोगों के पक्ष में इतिहास का चक्र मोडना था जो पश्चिमी विचारों के ढांचे में ढल चुके थे , और उन लोगों को किनारे करना था जो देसी तौर तरीकों की वकालत करते रहते थे
पहले से तय की गयी निश्चित तारीख तक संविधान बना देने की मजबूरी की बात संवैधानिक सलाहकार ने संविधान सभा के अध्यक्ष के सामने तब रखी जब इस बात को लेकर गरमागरम बहस छिडी हुई थी कि हमारे नये राजनैतिक ढांचे की बुनियादी इकाई क्या होनी चाहिए
लेकिन जहां तक भारतीय पद्धतियों के अनुरूप ढालने की बात है , कुछ नहीं किया गया
वर्ष के अन्त में देश की अपनी कला से सम्बन्धित उत्सव हुए , और इनमें न केवल भारत के कोने कोने के गान , नृत्य , कथायें सामने आईं अपितु निकटवर्ती बौद्ध देशों के विद्वानों और कलाकारों ने भी भाग लिया
बृहत समाज और उसका नेतृत्व व संचालन करने वाले पीछे खदेड़ दिये गए
ऐसी स्थिति में से हम निकलना चाहते हों तो हमें अपने देश की परम्पराओं , मान्यताओं , विद्याओं और भारतीय स्वभाव के आधार पर नया भारत बनाना शुरू करना चाहिए
गाँवों , कस्बों व शहरों के मुहल्लों में नई शुरुआत तो अभी से हो सकती है
लेकिन इन देशों के सोच व स्वभाव हमारे देश के सोच व स्वभाव से बहुत मिलता जुलता है
भारत में भी इस्पात तथा लोहे के निर्माण की अपनी विकसित विधि थी
शायद प्लेटो का भी यही विचार रहा हो , पूंजीवाद और मार्क्सवाद का तो है ही कि लोग कुछ नहीं है , वे तो हमारे द्वारा सुधारे जाएंगे , पीटे ढाले जाएंगे , फिर जिधर हम चाहेंगे , उधर वे चलते चले जाएंगे , हम बढते चले जाएंगे
मनुष्य पूरी तरह तो वे केवल खुद को मानते हैं , बाकी उनके लिए आदिम , पिछड़े , बर्बर , अविकसित मनुष्य , कमतर मनुष्य हैं
संयुक्त राज्य अमेरिका में रेड इंडियनों ( वहाँ के मूल निवासियों ) की गणना पुरानी जनगणनाओं में कभी की ही नहीं जाती थी , क्योंकि यूरोप से आए लोग रेड इंडियनों को मनुष्य नहीं मानते थे
वैसे तो भारत के लोग कभी भी खूंखार व लड़ाकू नहीं रहे , न ही उन्हें न्यायालयों में जाने का चाव ही था
अंग्रेजी राज्य ने उनके खेतों को छीनकर उद्योगों व घरों को उजाड़ कर , उन्हें न्यायालयों की शरण लेने के लिए एक तरह से बाध्य किया
श्रीमती इंदिरा गांधी ने स्वयं शायद कहा था कि उनके पिता जवाहरलाल नहेरू ने बड़ी गलती की कि अंग्रजों के बनाये तंत्र को जैसा का तैसा रहने दिया
वैसे तो आज का सामाजिक , राजनीतिक , आर्थिक , सांस्कृतिक ढांचा इन २००-१५० वर्षों में , या और पहले से ही , जर्जर होता गया है , लेकिन पिछले ८-१० बरसों से भारत का जो बेहाल हुआ है उसका मुख्य कारण सांसदों को दल का भृत्य व कैदी जैसा बना देना है
भारतीय केन्द्र व्यवस्था से यह कभी होने वाला नहीं है , यह तो एक प्रवंचना है
पुत्र डेविड लन्दन में व्यवसायी है , पुत्री रोझविता लन्दन में अध्यापक है और दूसरी पुत्री गीता धर्मपाल हाईडलबर्ग विश्वविद्यालय , जर्मनी में इतिहास विषय की अध्यापक है
वैद्यकीय व्यवसाय के लोग और आक्सफोर्ड के धर्मशास्त्रों के पंडितों द्वारा कुछ समय तक उसका जोरदार विरोध होने के बावजूद अपेक्षाकृत सफलता प्रमाणित होने पर उसका मूल्य वे समझने लगे और वैद्यकीय क्षेत्र के बहुत से लोगों में अलग अलग देशों में तत्सम्बन्धी पूछताछ प्रारंभ की गई
इस ग्रंथ के अध्याय १२ एवं १३ के लेखकों के अनुसार भारत में अनादिकाल से वपित्र प्रयुक्त होता रहा था
इस प्रकार एम . ली . जेन्टले ने सन् १७६९ के आसपास भारत की मुलाकात के अवसर पर जानकारी प्राप्त की
अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यूरोपीय मानस में अवस्थित धारणाओं के दूसरे भी कतिपय परिणाम हैं
हिन्दुओं द्वारा प्रयुक्त पद्धति से चेल्डीयन ( Chaldean - बेबिलोन ) इजिप्त या ग्रीक अथवा अन्य किसी भी गणना की पद्धति के परिणाम बहुत भिन्न हुए हैं
इस अधिकारी के अनुसार नमीयुक्त जलवायु में किये जानेवाले टीकाकरण की अपेक्षा स्थानीय पद्धति में 'प्रतिकार शक्ति अधिक' थी
अध्याय एक , दो , पाँच , और छ: में वर्णित खगोलविद्या और गणितशास्त्र के विषय में प्राय: बहुत से विद्वान जानते हैं
परंतु , भारतीय अर्थशास्त्र के विद्वानों और प्रसिद्ध लेखकों ने इसकी जानकारी होने पर भी अभी तक , विज्ञान तथा तंत्रज्ञान के शिक्षण और प्रचलन के विषय में , कोई आम जागृति पैदा नहीं की है
'एक अत्यंत कठिन कूटप्रश्न का १२०० से अधिक वर्ष पूर्व एक भारतीय बीजगणितकार द्वारा दिया गया हल , यूरोप जिनके लिए गर्व कर सकता है ऐसे १८वीं शताब्दी के अंत के नैसर्गिक लाक्षणिकताओं और शोधवृत्ति रखनेवाले दो अति विख्यात गणितशास्त्रियों के साथ स्पर्धा कर सकता है
अंत में , विज्ञान और प्रौद्योगिकी पूर्ण नष्ट हो गई यह विचार भी पूर्ण सत्य नहीं है
यूरोप के आक्रमण के समय , ऐसा प्रतीत होता है की भारतीय मानस का झुकाव धीमी गति से पुनरुत्थान की ओर था
४४ . वही , पृ . ३६४ ४५ . बाद में शेफिल्ड में लोहे और फौलाद के प्रमुख उत्पादक जे . एम . हीथ ने १८२४ में कहा था , 'इस उद्देश्य के लिए आवश्यक लोहे के विषय में इंग्लैण्ड पूर्णत: विदेशों पर निर्भर है यह सर्वविदित है तथा गत वर्ष मात्र फौलाद बनाने के लिए इंग्लैन्ड में आयात हुआ विदेशी लोहा १२ हजार टन से अधिक था . . . एन्करेजमेन्ट ऑफ आर्ट्स सोसायटी इंग्लैण्ड ने फौलाद बनाने के लिए उपयोगी लोहा निर्माण करने वाले के लिये पारिश्रमिक घोषित किया था किन्तु आज तक किसी ने भी दावा नहीं किया और निम्न प्रकार का ईंधन देखते हुए इस प्रकार का दावा कभी कोई करेगा भी नहीं
इतना ही नहीं , इन यंत्रों का स्थापन ( सुव्यवस्थित रचना ) , निर्माण , अलग अलग भागों का मिलान , उनके लिए आवश्यक एवं पर्याप्त आधार , इन पत्थरों को जोड़ने हेतु प्रयुक्त पत्थर और सीसा - आदि प्रत्येक पहलू में एक प्रकार से गाणितिक सतर्कता दृष्टिगत होती थी
लेफटेन्ट कर्नल आर्किबाल्ड कैम्पबेल जो तत्कालीन ईस्ट इंडिया कंपनी के मुख्य इंजीनियर थे उन्होंने इस यंत्र का यथार्थ दर्शन करानेवाला चित्र किसी एक निश्चित निरीक्षण बिन्दु से बनाया था , परन्तु अत्यन्त दु:ख की बात है कि वे कुछेक विराट चतुर्थ वृत्तांशों - जिसकी त्रिज्या बीस फुट थी - को अपने चित्र में नहीं ले पाये क्यों कि ये वृत्तांश उन्होंने निरीक्षण बिन्दु चयन किया था उसी की ओर थे
पीतल की एक खूँटी वृत्तांश के केन्द्र के आगे जड़ दी गई है
इस प्रकार , यह खगोलशास्त्र हमारे समक्ष तीन मुख्य बातें प्रस्तुत करता है : १ . सूर्य और चन्द्र के स्थान निर्धारित करने के कोष्ठक और नियम; २ . ग्रहों के स्थान निर्धारित करने के कोष्ठक और नियम; ३ . ग्रहण का स्पर्श , मोक्ष तथा पूर्ण स्थिति निश्चित करने का नियम
परंतु श्रीयुत् जेन्टिल द्वारा दिये उनके नाम और आकार८ अलग ही हैं
समय के सूक्ष्म विभाजन में , भी भारतीयों का गणित साठ भाग के अनुसार ही चलता है: वे प्रत्येक दिन को ६० घण्टों १२ में , प्रत्येक घण्टे को ६० मिनिट में और उसी प्रकार१४ प्रत्येक स्तर पर क्रमश: ६० भाग करते जाते हैं
जब यह संस्कार किसी ग्रह की कक्षीय उत्केन्द्रता के कारण पैदा होता है तब उसे 'मंद फल' भी कहते हैं
२१ यह धारणा पर्याप्त रूप से निश्चित न होने पर भी टोलेमी की अवधारणा कि भूम्युच्य बिन्दु संपूर्णत: स्थिर है - सत्य से अधिक समीप है क्योंकि आधुनिक मूल्य के अनुसार सूर्य का भूम्युच्य बिन्दु वार्षिक १०'' की गति से खिसक रहा है
तब भी , चुस्त गाणितिक तर्क के आधार पर ऐसा अनुमान कर सकते हैं कि उन कोष्ठकों का आधार रूप अवलोकन खिव्रस्तीयुग के प्रारंभ के २००० वर्ष से अधिक पुरातन नहीं है
सचमुच , उनके लिखे अनुसार , चन्द्र के प्रवेग के आधार पर दिया गया , प्रत्येक तर्क अधिक ध्यान देने योग्य और अधिक निर्णयात्मक सिद्ध हुआ है , क्योंकि वह प्रवेग कहीं पुरातन अवलोकनों का आधुनिक अवलोकनों के साथ मेल बिठाने के लिए किया गया अनुभवजन्य सुधार नहीं है और ना ही ऐसा कोई तथ्य कि जो केवल 'इधर के अवरोध' ( या गुरुत्वाकर्षण के लिए आवश्यक समय ) जैसे पूर्वथारणात्मक कारणों के लिए उत्तरदायी होते हैं
ये अवलोकन जब भारत में लिये जाते थे तब संपूर्ण यूरोप जंगली और उज्जड़ अवस्था में था और गुरुत्वाकर्षण की सूक्ष्मातिसूक्ष्म असरों की खोज लगभग पाँच हजार वर्षों के बाद यूरोप में हुई और वे दोनों अनुसंधान एक दूसरे का समर्थन करते हैं यही विज्ञान की प्रगति और भाग्य परिवर्तन का अद्भुत उदाहरण है , जिसे मानव इतिहास ने प्रस्तुत किया है
यह शोध यानी हमारी प्रणाली के सभी विचलन आवर्ती हैं
अब ला ग्रान्ज का तिर्यकता का विचलन सूत्र६६ जो इस संस्कार को २२'-३२'' मूल्य देता है , सन् १७०० में तिर्यकता में जोड़ने पर २३°-२८' - ४१'' मिलता है
बुध के विषय में , आश्चर्य नहीं है कि प्रारंभ के सभी खगोलशास्त्रीयों को गलत दिशा में मार्गदर्शन दिया गया
इस प्रकार की गणना गोलीय त्रिकोणमिति अथवा उसके समान किसी पद्धति के बिना संभव नहीं होती है
५० . श्रीयुत् ले जेन्टिल की स्मरणिका का वृत्त देते हुए विज्ञान अकादमी के इतिहासविद ने दर्ज किया है कि उसमें वर्णित सूर्यग्रहण के समय वास्तविक और दृश्य युति के बीच का अंतर खोजने के नियम में चन्द्र के लंबन को खोजने की गणना का भी समावेश होता है , परंतु उसमें विषुवांश में लंबन के स्थान पर देशांतर का लंबन लिया है
तब भी उसका अधिकांश हिस्सा उसमें समाहित हो जाता है
'आइने अकबरी' के एक परिच्छेद में दर्ज किया गया है कि हिन्दू वृत्त के व्यास और परिघ के गुणोत्तर १२५०:३९२७ होना मानते हैं
अनुपात १२५० : ३९२७ वृत्त का क्षेत्रफल खोजने के लिए बहुत उपयोगी और निकटस्थ है
जब ज्ञान की उत्सुकता के कारण बंगाल ने हमारे देशवासियों के बीच एक साहित्य मंडल की रचना की है और सर विलियम जोन्स की क्षमताएँ और विद्वत्तापूर्ण मार्गदर्शन सुलभ हो रहा है , तब ऐसी आशा करना अनुपयुक्त नहीं होगा
उसका स्थान पूर्ण रूप से वैज्ञानिक और निश्चित पद्धति ने ले लिया है , जो संपूर्ण घटना का सूक्ष्म पृथक्करण करती है और क्रमश: सूर्य , चन्द्र और राहुपात की गतियों की गणना करती है
फिर , कला और विकला पंक्तिबद्ध एक दूसरे के नीचे लिखे हैं , न कि स्तंभ स्वरूप में
खाल्डिया और ग्रीस के खगोलशास्त्र के कतिपय भाग - जिन्हें संभवत: भारत से आयात किया माना जा सकता है - की बात में मुदे 'Astronomic lardianne' के दसवें प्रकरण का संदर्भ लेना ही पडे़गा , जहाँ इस विषय को अत्यंत विद्वत्तापूर्ण और सयुक्तिक ढंग से रखा गया है
प्रयोगों के बिना प्राकृतिक तत्त्वज्ञान स्वप्नवत् लगता है
ऐसा होने पर भी मिश्र ( इजिप्त ) को "विज्ञान के जन्मदाता' की प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है
भारतीय खगोलशास्त्रियों के द्वारा किये गये अवलोकन मुख्यत: उनकी पाण्डुलिपियों में प्राप्त होते हैं , फलत: उनकी जानकारी स्थानीय लोगों के साथ व्यापक संवाद आयोजन कर के ही प्राप्त की जा सकती है
ऐसी स्थिति में फादर गोबिल दो मापों के बीच का गुणोत्तर मापने में सफल हुए हैं
न्यूटोनियन कालगणना में ऐसी धारणा है कि शिरोन ने एक गोलक बनाया और उस पर राशि चित्र अंकित किये
न्यूटन की कालगणना इस मान्यता पर आधारित है कि शिरोन का गोलक प्रमुख रूप से आकाशदर्शन के अध्ययनकर्ताओं हेतु बनाया गया था
प्रस्तुत अवधारणा को अतिशय विरोध का सामना करना पड़ा था क्यों कि इसे सभी मानते हैं कि हिन्दुओं की भी ऐसी ही नक्षत्र आकृतियाँ हैं और क्रम भी यही है
परन्तु हम जानते हैं कि किसी निश्चित अक्षांश के लिए बनाई गई सौरघड़ी अन्य अक्षांश हेतु भी उपादेय होती है , यदि उसका ठीक प्रकार से अध्ययन कर उचित ढंग से व्यवस्थित कर रखा जाय
बाइबल में दिये गये एहाज और अन्य इजरायली राजाओं के मूर्तिपूजा के वृतान्त से ज्ञात होता है कि संभवत: जेन्टू उपासना पद्धति भारत से लेकर पश्चिम भूमध्य समुद्र तक व्याप्त थी और यहूदी उसे द्रुतगति से अपना रहे थे
इतना ही नहीं , मौसम विज्ञान ( Meterology ) , वायुदबाव शास्त्र , खगोलशास्त्र , विद्युतशास्त्र आदि अनेक विज्ञानों से सम्बद्ध अवलोकन बनारस की यात्रा से संभव हो सकते हैं , यद्यपि इस प्रकार के विशिष्ट मुद्दों की सूची अनंत है
मूल पुस्तक का नाम है - 'सृष्टि के आश्चर्य' ( द वन्डर्स ऑफ द क्रिएशन - The Wonders of the creation . ) वस्तुत: यह पुस्तक एक प्रकार से प्रचलित प्राकृतिक इतिहास विषयक है जिसे संपादक ने विज्ञान से सम्बद्ध पुस्तकों तथा अरबों के यात्रा वर्णनों एवं अनुभवों के आधार पर लिखा है
इस क्षेत्र के विद्वानों को पूछने पर जानकारी प्राप्त हुई कि मंगल का व्यक्तित्व एक योद्धा जैसा है और गुरु की आकृति एक बैठे हुए वृद्ध व्यक्ति की है , जिसके आसपास चार कन्याएँ नृत्य कर रही हैं
इस पुस्तक का अनुवाद मैं लब्धप्रतिष्ठ सोसाईटी के समक्ष रखना चाहता था , परंतु आकृतियाँ चित्रित करने की कठिनाई ने मेरी योजना की क्रियान्विति को बाधित किया
बंदूक में प्रयुक्त होनेवाले विस्फोटक , अतीत की तुलना में नया आविष्कार माना जाएगा , परंतु ग्रे के बंदूकशास्त्र ( गनेरी ) पुस्तक में उल्लेख है कि वह सिकंदर के समय में भी बंदूकों में प्रयुक्त होता था
परिणामस्वरूप कहा जाता है कि विषुववृत्त अभी पृथ्वी के जिस भाग में है उसकी तुलना में भूतकाल में अधिक उत्तर की ओर अवस्थित होगा
प्रथम तो उत्सुकतापूर्वक जिज्ञासु ज्ञान के स्रोत विषयक सूचना प्राप्त करने का प्रयास करता ही है और उसकी प्रगति का पुनरावलोकन ज्ञानप्राप्ति की प्रक्रिया को अपने सूचनों के द्वारा प्रोत्साहित करता है
श्री बेन्टली , जो कि भारतीय खगोलशास्त्रियों को अति प्राचीन मानने के पक्ष में बहुत कम होते हैं उन्होंने ब्रह्मगुप्त द्वारा सिखाई गई खगोल प्रणाली लगभग बारह सौ से तेरह सौ वर्ष जितनी प्राचीन होने के कारण दिये हैं
इतना ही नहीं , प्रथम कक्षा के अनिश्चयात्मक प्रश्नों के हल हेतु सामान्य पद्धति आर्यभट्ट ने विकसित की थी जब कि ग्रीक गणितज्ञ के विषय में ऐसी जानकारी प्राप्त नहीं होती है तथापि डायोफेन्टस में निश्चित समाधानों के विषय में अत्यन्त व्यावहारिक बुद्धिमत्ता और युक्तिप्राचुर्य दिखाई देता है और दोनों के बीच में कतिपय समानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं
( बीजगणित प्रकरण-६ , विभाग-१५३-१५६ के प्रारंभ का विवरण ) 'वर्ग' और 'घन' के प्रथमाक्षर अपनी-अपनी घात दर्शाते हैं और जब साथ आते हैं तब इन दोनों में से बड़ा घात दर्शाता है
फिर अरब बीजगणितज्ञ तो संकेतों से बहुत दूर हैं वरन् यों कहें कि वे सर्वथा संकेत रहित हैं
इसीलिए पृथक्करण कला की इस शाखा को अरबों ने नाम दिया है - 'तारीक अल जब्रवा अल मुकाबला' अर्थात् पुन: स्थापना एवं तुलना की पद्धति' तथा इसी कारण से अरबों के द्वारा दिया गया संपूर्ण शीर्षक है 'फिरिश्त खराजूल मझहूलत बा तारिक अलजब्र वा अल मुकाबला' जिसका लेटिन में शुद्ध भाषातंर पीजा के लियोनार्डो ने किया 'द सोल्यूशन क्वारन्दम क्वायेश्वानम सेकन्डम मोडम एलजिब्राये एट एल मुकाबलाये'५° जिसके आधार पर वर्तमान नाम 'एलजिब्रा' प्रचलित हुआ
ला ग्रान्ज को भी इस अनिश्चयात्मक पृथक्करण की शाखा की विशेष प्रणाली का यश प्राप्त होता है , परंतु वे भी सन् १७६७^९२ तक और उनके दूसरी कक्षा के समीकरणों का संपूर्ण समाधान तो सन् १७६९^९३ से पूर्व नहीं दे पाये
हिन्दुओं के पास बीजगणित का ज्ञान पाँचवीं शताब्दी से , कदाचित उससे भी पहले से था और उसका विकास प्रथम और द्वितीय कक्षा के निश्चयात्मक और अनिश्चयात्मक दोनों प्रकार के प्रश्नों के सामान्य हल तक तथा परिणामस्वरूप जिसमें दूसरा पद नहीं है ऐसे चतुर्घात समीकरणों के और अत्यंत सीमित तथा सरल स्थिति में त्रिघात समीकरणों के हल तक हो चुका था
इन लक्षणों के अनुसार राशिचक्र को बारह भागों में विभाजित करने की , उन्हें ग्रीकों के समान चित्रों के द्वारा पहचानने की और अर्थ की दृष्टि से भी ग्रीकों के समान लगनेवाले नाम देने की घटना के साथ जोड़ने पर तथा टोलेमी की अथवा तो यो कहें कि हिप्पार्कस की खगोल प्रणाली की भारतीय खगोल प्रणाली के साथ तुलना करने पर , उनके बीच एकरूपता नहीं परंतु साम्य है
वर्षों तक इस द्वीप पर रहने तथा परिपक्वता की स्थिति तक पहुंचने तक यहाँ के लोग द्वीप से बाहर क्वचित् ही जाते हैं; यहाँ के लोग बचपन से ही रतालू खाते हैं जिसकी प्रकृति दूषित गुण वाली होती है जिसके सेवन से भयंकर दस्त लग जाते हैं तथा कभी-कभी सूजा हुआ दुर्गधयुक्त गला हो जाता है
जब टीकाकरण के उपचार हेतु बताये गये परहेज का पूरी तरह से पालन किया जाता है तो इसके जादुई प्रभाव के बारे में सुनने में आता है कि दस लाख में एक ही संक्रमण का शिकार होता है , या केवल वही इसका शिकार होता है जो परहेज नहीं करता
वायुमंडल में विद्यमान हानिकर जंतु , जो कि समस्त रोगजनक कारक होते हैं , तथा अन्य महामारी वाले विकार ब्राह्मणों के इस रोगप्रचारक सिद्धांतो में एकल कारक नहीं होते हैं , तथापि , इससे निकाले गए उनके कुछ निष्कर्ष नितांत उनके अपने होते हैं
इस बीमारी में शरीर के अंदर के विकारकारक विषाणु त्वचा पर फुंसियो के माध्यम से मवाद के रूप में शरीर से बाहर निकल जाते हैं तथा शरीर के अंदर से शरीर के बैरियों का समग्र निष्कासन होना भी स्वास्थ्य के लिए लाभकर होता है क्योंकि यदि उन्हें शरीर से बाहर न निकाला जाए तो ये शरीर के किसी अन्य तंत्र में जाकर गड़बड़ी पैदा करके संकटपूर्ण स्थिति का निर्माण कर देते हैं
अनुभव के आधार पर यह सिद्ध हुआ है कि यह प्राकृतिक औजार कैंची , छुरी , या सुई की अपेक्षा अधिक उपयोगी है
९ . पूर्वी भारत में मद्रास में उत्कृष्ट गारा बनाने की पद्धति गड्ढे से उकेरी ताजा मिट्टी के पूरे भरे हुए पंद्रह बुशेल लें
मद्रास में वर्ष में तीन महीने से अधिक वर्षा का मौसम होता नहीं है ( कभी कभी तो इससे भी कम होता है ) अत: वहा सामान्य घरों में इंटों का काम चिकनी दुम्मटी का उपयोग करके ही करते हैं
मौसम की मार को सहने के लिए कुछ उत्कृष्ट प्रकार की चिनम बनाने के लिये और जहां अधिक वर्षा होती है वहां वे घी के स्थान पर उसमें तिली का तेल मिलाते हैं तथा आम अथवा ऐसे ही कठोर पेड़ की छाल एवं यहाँ समुद्र तट पर प्रभूत मात्रा में पैदा होने वाली मुसब्बर मिलाते हैं
हरड के स्थान पर आलूचा का कुछ रस तथा गुड़ के स्थान पर सस्ती चीनी या सीरा का उपयोग किया जा सकता है तथा होना भी चाहिए
एक बड़े खुले मैदान में तीन या चार बड़े गड्ढे खोदे जाते जिनमें से प्रत्येक करीब ३० फीट चौरस तथा दो फीट गहरा होता था
जब ये उत्पाद पुराने होकर रद्दी हो जाते हैं तो इस देश का अधिकांश कागज इसी से बनाया जाता है
यहाँ रस्सी निर्माण के लिये से अन्य वनस्पतियों के रेशों का उपयोग भी किया जाता है जिनमें से एक गुड़हल प्रजाति की है जिसका विवरण मैंने एक अन्य आलेख में दिया है
बढ़िया कागज की दोबारा पालिश की जाती है
उनके पवित्र बैल तथा गाय के प्रति सम्मान और श्रद्धाभाव भी कृषि कर्म के प्रति उनकी सेवा एवं श्रद्धा के द्योतक हैं
सुहावने एवं सामान्य मौसम में बीज को पाला या ठंडी से बचाना आवश्यक नहीं होता है
कृषिकार्य के उद्देश्यों के अनुरूप वे विभिन्न औजारों का उपयोग करते हैं जो हमारे आधुनिक सुधारों की वजह से इंग्लेंड में भी प्रयुक्त होने लगे हैं
खेत के खर पतवार एवं अनावश्यक जडों को उखाडने के लिए भारतीय कृषक खेत में कई बार सीधी जुताई एवं उसके पश्चात् आडी जुताई करते हैं; इसे वे सूर्य की गरमी से शुष्क सूखी जमीन की जुताई करके मिट्टी को ढीला करने के लिए भी करते हैं
अत: खेत की जमीन को हवा , ओस एवं वर्षा के लिए आवश्यक रूप से खुला रखा जाता है
सूखी घास दराँती से न काटी जाकर हँसिया से काटी जाती है
अमेरिका में कुँआरी अथवा नई भूमि में बिना खाद डाले भी वर्ष प्रतिवर्ष लगातार फसलें पैदा की जाती हैं
धान की फसल में अन्य किसी भी फसल की तुलना में कम श्रम लगता है
कई बार आवर्तन पद्धति का फसल उगाने में उपयोग किया जाता है लेकिन जहां कछारी भूमि होती है वहाँ आवर्तक फसल उगाना अनावश्यक होता है
भारत वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति में , ब्रिटिश सरकार के उत्कृष्ट राष्ट्र का सर्वोत्तम हिस्सा है; अत: हमारा अत्यावश्यक दायित्व है कि हम इसकी वर्तमान दशा को सुधारने हेतु हर संभव भरसक उपाय करें तथा इसे इस विषम स्थिति से बचाएँ
उत्तरी भारत से यहां की कृषि में अनेक प्रकार की भिन्नताएँ हैं
दक्षिणी भाग कई बार एक वर्ष में या कभी कभी १४ महीनों में तीन फसलें पैदा करने के योग्य है
ग्रीक जो कृषि के आविष्कर्ता के रूप में बच्छू को मानते हैं और कहते हैं कि वही पहला व्यक्ति था जो सर्वप्रथम भारत के बैलों को यूरोप में लाया
मलबार में स्थानीय लोग पहिएवाली गाड़ियों का उपयोग नहीं करते
समान या मध्यम किस्म की जमीन को यह नाम दिया जाता है
'राशि कूर' शब्दावली 'रहितता' के अर्थ की बोधक होती है
उर्वरता की प्रामाणिकता दूसरी में होती है , इसमें मिट्टी जैसे फूल जाती है तथा उस गड्ढे में भरने पर आनुपातिक रूप में बढ जाती है
जब उनके पास अपने पशुवृंद को चारा खिलाने के लिए पर्याप्त स्थान नहीं होता है तो वे पास वाले की सहमति से अपने चारागाह को बढा लेते हैं
बंगाल में जमीन की असाधारण अनुर्वरता हिंदू कृषकों के लिए संभवत: अनुकूल नहीं है
इनमें एक हल में बुवाई के हल के समान ही समस्तर फाल होती है
( तीन हलों का सेट लंदन में कृषि बार्ड को विधिवत प्राप्त हुआ तथा इन तीनो हलों के रेखाचित्र ( उपयुक्त विवरण के साथ ) 'कृषि बोर्ड के पत्राचार" ( १७९७ ) के प्रथम खंड में प्रकाशित हुए
मद्रास के पश्चिमी भाग में कर्नाटक के एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि सामान्य रूप से धान के बीज बोकर उनसे गट्ठर बनाने तथा उन्हें हाथों से खेत में रोपे जाने की सामान्य पद्धति कि तुलना में वहाँ अत्यंत उत्कृष्ट पद्धति का प्रयोग किया जाता है
कच्चा लोहखनिज जमीन के प्रथम स्तर के नीचे ( जो कि पूर्वोल्लिखित विवरण के अनुसार कंकड एवं बालू से निर्मित होती है ) परत के रूप में होता हैं
अकाल से पहले कुल मिलाकर ४० भट्टियां थीं जो अब घटकर केवल १० रह गई हैं
डॉ . हैन ने इसका विवरण देते हुए लिखा है कि उन्हें अजनबियों के लिए बोझा ढोना पडता था ( उदाहरणार्थ : ब्रिटिश सेना तथा ब्रिटिश असैनिक अधिकारियों के लिए ) तथा वे एक गाँव से दूसरे गाँव तक ऐसे समय में बोझा ढोने के लिए जाया करते थे
चट्टान को तोड़कर इसे निकाला जाता है लेकिन इसका लोह अयस्क अच्छी किस्म का नहीं होता
इन में से पहली दो खदानों में लोह अयस्क दानेदार , लगभग मटर के आकार का गोलाकार मृत्तिकामय ( सं . २० ) होता है जो कि लोहमय मिट्टी द्वारा ठोस पदार्थ में जुडा हुआ होता है; दूसरे प्रकार का लोह अयस्क टुकडों के आकार एवं चपटे रूप में पहले प्रकार के लोहअयस्क जैसा ही होता है ( सं . २१ ) लेकिन कुछ कम सख्त होता है तथा इसके पिंडों को अधिक आसानी से अलग किया जा सकता है
कटोला की लोह अयस्क खदानें केन और देसान नदियों के बीच कई पहाडियों में फैली हुई हैं
वहाँ भोजपुर गाँव के पास लोह-प्रस्तर से कुछ गोल बटियाँनुमा लोहमय मिट्टी निकाली जाती है लेकिन मोतेही से निकाले जानेवाले लोह अयस्क के समान होने के कारण इसकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता
इसी तरह की अगली खदाने हैं जिनका लोह अयस्क ( सं . -३६ ) इसी प्रकार का है लेकिन हीरापुर की खदान का लोह अयस्क अत्यंत उत्कृष्ट कोटि का है
ये स्तरित स्फटिक चट्टान से निर्मित पहाडियों की निम्न शृंखला के समीप हैं जिसमें स्पष्ट रूप से फैल्सपर होता है
इन्हें हाथ से संचालित किया जाता है
धोंकनियों से भट्ठी में प्रगलन क्रिया तीव्र की जाती है लेकिन लकडी के नोझल की बजाय वे लम्बी लोहे की ट्यूबों से आरेख ५ , आकृति - ५ के अनुरूप बनाकर रखते हैं
निष्कर्ष इस छोटी भट्ठी की तुलना यूरोप की किसी छोटी भट्ठी से करने की मेरी मंशा थी
९ . सामान्य अंग्रेजी लोह सलाख से ऐसी अत्यंत उच्च कोटि का पिटवाँ लोहा ७०% के लगभग निकलता है
कच्चे लोह अयस्क से बाष्पशील अशुद्धता को दूर करने के लिए पहले इसे सेंका जाता है और बाद में इसे प्रगलन हेतु भट्टियों में डाला जाता है
अत: एक टन ढलवाँ लोहा तैयार करने के लिए चार से पाँच गुनी मात्रा में कोयला खर्च होता है
उनकी यह कला स्वभात: अत्यंत मसृण है तथा युद्धों या अत्याचारों तथा सरकारों की क्रांतियों को झेल नहीं पातीं
कुछ रंगों को और अधिक चटखदार बनाने में इसकी गजब की भूमिका होती है जो वृक्ष के व्रण से बने रंगों में बिल्कुल भी नहीं होती क्योंकि मैं ने इस देश के रंगाई कार्य में इसका उपयोग होते हुए देखा है
मैं एक बक्से में स्टील का नमूना भेज रहा हूँ जिसे वुट्ज कहा जाता है तथा जिसे भारतीय मूल्यवान मानते हैं
इनमें से एक हंड्रेड वेईट ( ११२ रतल ) वूट्ज आप परीक्षण के लिये अपने पास रख सकते हैं तथा शेष सामग्री डॉ . जॉन्सन को दे दें
यह रस्सी को मौसम के प्रभाव से बचाता है
अध्याय ५ . रूबेन बरो द्वारा लिखित 'हिंदुओ में द्विसंज्ञ प्रमेय प्रचलित होने के साक्ष्य' शीर्षक से 'एशियाटिक रिसर्चेज्ञ' के खंड २ ( १९७० ) के पृ . ४८७-९७ पर सर्वप्रथम प्रकाशित हुआ
वे भारत में पहली बार सन् १७४९ के करीब आए
१९४९ में भारत का विभाजन हुआ
१९४९ में वे इंग्लैण्ड , इझरायल और अन्य देशों की यात्रा पर गये
१९५० में वे भारत वापस आये
१९६४-६५ में श्री धर्मपालजी आल इण्डिया पंचायत परिषद के शोध विभाग के निदेशक रहे
गांधीजी उनकी दृष्टि में अवतार पुरुष हैं
१ . विषय प्रवेश परम्परागत रूप से भारतीयों का राजसत्ता अथवा सरकार के प्रति सामूहिक अथवा व्यक्तिगत रूप से कैसा भाव होता है ? कुछ अपवादों को छोड़कर भारत के लोग विनम्र , ढीले और सरल होते हैं
यह निबंध भारत की सविनय कानूनभंग की क्रांति का आधार बना था
महात्मा गांधी के अन्य एक हाल ही के विद्यार्थी के अनुसार , गांधीजी की असहयोग एवं सविनय कानूनभंग की पद्धति सहज रूप से विकसित हुई थी
" और गांधीजी भी मानते थे कि , अपने नियम खराब हों या अच्छे उनका पालन करना ही चाहिए , ऐसी एक नई विचारधारा थी
ऐसा लगता है कि भारत के परंपरागत इतिहासकारों की अपेक्षा अधिक महात्मा गांधी तथा मिल को भारत में प्रवर्तमान राजा प्रजा के बीच के संबंध की सही जानकारी थी
उससे ये भी संकेत मिलते हैं कि सरकार के दमनकारी और अत्याचारी कदम के सामने भारतीयों द्वारा उपयोग में ली जाने वाली सविनय कानूनभंग और असहयोग की पद्धतियाँ प्रमुख थीं
उदा: नवम्बर १८८० के ब्रिटिश गर्वनर और कौन्सिल मद्रास ( अब चेन्नई ) के बीच हुई कार्यवाही में ब्रिटिश शासकों के तानाशाही कदम के विरुद्ध मद्रास पटनम शहर में क्रांतिकारियों ने जो प्रतिकार किया उसको इस प्रकार लिखा गया है : 'शहर में जनता की एक जाति ने अनेक पत्र लिखे , फिर चित्रकार एवं अन्य सेन्ट टॉमस के पास एकत्रित हुए
पत्र जिन्हें लिखे गए उनमें कम्पनी में नौकरी करने वाले दुभाषियों जैसे अनेको को जो उनके समर्थन में बाहर नहीं आए , हत्या की धमकी दी गई थी
ब्रिटिश शासन स्थापित होने तक प्रवर्तित 'दमन के विरुद्ध विद्रोह' को जेम्स मिल 'सामान्य चलन' कहता है वह क्रमश: 'सत्ता के समक्ष बिनाशर्त शरणागति' में परिवर्तित होता गया
आगे बढ़ने से पहले , अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में तथा उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत का शासन जिस प्रकार गठित हुआ उसका संक्षिप्त संदर्भ देना उपयोगी होगा
बहुत से किस्सों में , भारत के लिए १७८४ के बाद से अति महत्त्वपूर्ण विस्तृत सूचनाओं का प्रथम मसौदा तैयार करने की जवाबदारी बोर्ड ऑव कमिश्नर्स की हो गई
यह बोर्ड ब्रिटिश संसद में कानून पारित कर बनाया गया था
जिन मकानों अथवा दूकानों को करमुक्ति दी गई थी उनमें सेना के जवानों के मकान , बंगले तथा अन्य इमारतें तथा धार्मिक निवासों तथा खाली मकानों अथवा दूकानों का समावेश होता था
दिनांक २६ नवम्बर को तो बनारस के समाहर्ता ने , बनारस के न्यायाधीश को मकान कर वसूल करने के लिए उनके निश्चय तथा उस हेतु प्रारम्भ किए गए अंकन के बारे में जानकारी भी दे दी और साथ ही उन्होंने प्रार्थना की कि उस कर के संबंध में सूचना देनेवाली नकलों को अलग अलग थानों में लगा दिया जाए
दिनांक २६ नवम्बर को तो बनारस के समाहर्ता ने , बनारस के न्यायाधीश को मकान कर वसूल करने के लिए उनके निश्चय तथा उस हेतु प्रारम्भ किए गए अंकन के बारे में जानकारी भी दे दी और साथ ही उन्होंने प्रार्थना की कि उस कर के संबंध में सूचना देनेवाली नकलों को अलग अलग थानों में लगा दिया जाए
जनवरी ७ , इस घोषणापत्र के प्रसिद्ध करने की तारीख , से जनवरी ११ के बीच ( इंग्लैण्ड के निदेशक सत्ताधीशों को १२ जनवरी १८११ को लिखे गये राजस्व पत्र के अनुसार ) गंभीरता से विचारणा करने पर गवर्नर जनरल इन काउन्सिल को लगता था कि इस कर में कुछ सुधार करने की आवश्यकता है
परन्तु ( बनारस के ) सेना के ऑफिसर कमान्डिंग ने बताया था कि जब तक लखनऊ से ज्यादा सैन्य उन्हें प्राप्त नहीं होता तब तक ( प्रशासन तंत्र को ) आवश्यक सहायता प्रदान करने के लिए वे असमर्थ हैं
उस बीच दिनांक ११ के ( धार्मिक संस्थानों को कर मुक्ति देने संबंधी ) सरकार के आदेश बनारस के सत्ताधीशों तक पहुँच गए थे , परन्तु कार्यवाहक न्यायाधीश को लगा कि 'जो लोग इस प्रकार के अनुचित और अन्यायी कार्यकलापों में लगे हैं , वे प्रसन्न तो नहीं ही हैं
) ' इसी पत्र में उन्होंने और भी स्पष्ट किया कि: सरकार के विनियम १५ , १८१० को चालू रखने के प्रस्ताव की जानकारी होते ही अत्यन्त आपत्तिजनक और उत्तेजनापूर्ण पर्चे मुहल्लों में वितरित होने लगे
इस आवेदन को अंतिम आवेदन बताते हुए आवेदन के शब्दों में ही आवेदकों ने हिज़ लॉर्डशिप इन काउन्सिल को अति नम्रतापूर्वक बताया कि कानूनभंग करने की उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी
सरकार को उसकी रैयत पर सत्ता जमानी ही चाहिए , इसलिए उन्होंने सरकार का मार्गदर्शन भी मांगा
इसलिए उन्होंने न्यायाधीश को आदेश दिया कि उन्हें दिए गए आदेश तत्काल निरस्त करें और वह भी पूर्णत: सार्वजनिक रूप में बताएँ
तब रास्ते में वे ब्रिटेन में भी रुके थे
लेकिन फिर भी शायद सभी भारतीयों को उनमें एक अवतार पुरुष और एक दिव्य आत्मा के दर्शन होते रहे
लेकिन भारतीय जीवन में कोई सन्तुलन नहीं आ पाया
आज से आठ दस पीढ़ी ( पीढ़ी अर्थात् अनुमानत: तीस वर्ष की अवधि ) पूर्व के अर्थात् सन् १७५० के आसपास के भारत की राज्य व्यवस्था और सामाजिक गतिविधियों को समझने का प्रयास किया गया है
इसलिए इन सब अनुवादों और संस्करणों आदि से भारतीयता की समझ के प्रखर होने की बजाय आधुनिकता के हिसाब से भारतीय साहित्य का एक भाष्य-सा बनता चला गया है
मान लिया जाए कि प्रत्येक सूची में सौ-दो सौ के लगभग पांडुलिपियां होंगी तो इन सूचियों में दर्ज पांडुलिपियों की गिनती दो-चार लाख बैठती है
हमें अपने चित्त व काल को समझना है , अपने दो पैरों पर खड़े होने के लिए कोई धरातल बनाना है , तो इस तरह की दिशाहीन विद्वत्ता से कुछ नहीं बनेगा
पर हम क्योंकि अपने मानस व काल की समझ खो बैठे हैं , अपनी परम्परा के साथ जुड़े रहने की कला भूल गए हैं , इसलिए ऐसे सभी प्रश्न हमारे लिए सतत खुले पड़े हैं
श्री पुरुषोत्तम दास टंडन देश के बहुत बड़े और विद्वान नेता थे
अहिंसा में उनका अटूट विश्वास था
भौतिक विज्ञान के मूल सिद्धांत बदल जाते हैं , राजनीति विज्ञान की मौलिक परिभाषाएं बदल जाती हैं , दर्शनशास्त्र की दिशा बदल जाती है
पर ब्रह्म की यह लीला अनादि और अनन्त है यह विचार प्राय: भारतीयों के चित्त में रहता ही है
और सृष्टि का यह आरम्भिक काल आनन्द का काल है
पौराणिक गणना के अनुसार कृत का काल १७ , २८ , ००० बरस का है
रामायण में धर्म का ही साम्राज्य है
क्रूरता उनके स्वभाव में निहित है
द्वापर की अवधि कृत युग की अवधि से आधी ही है
कहा जाता है कि महाभारत का युद्ध द्वापर के अन्त और कलियुग के आरम्भ से ३६ साल पहले हुआ
जो विद्या इस नश्वर , सतत परिवर्तनशील , लीलामयी सृष्टि से परे के सनातन ब्रह्म की बात करती है , उस ब्रह्म से साक्षात्कार का मार्ग दिखाती है , वह परा विद्या है
इसके विपरीत जो विद्याएं इस सृष्टि के भीतर रहते हुए दैनन्दिन समस्याओं के समाधान का मार्ग बतलाती हैं , साधारण जीवन-यापन को सम्भव बनाती हैं , वे अपरा विद्याएं हैं और ऐसा माना जाता है कि परा विद्या अपरा विद्याओं से ऊंची है
उपनिषदों में तो केवल परा ज्ञान की ही बात है , पर वेदों में अन्य स्थानों पर ऐसे अनेक प्रसंग हैं जो सीधे अपरा से ही सम्बन्धित हैं
फिर व्याकरण जैसी विद्याएं तो परा और अपरा दोनों से ही सम्बन्ध रखती हैं
साधारण बातचीत में पुराणों का प्रसंग आने पर लोग प्राय: कह देते हैं कि इन किस्से-कहानियों को तो हम नहीं मानते , हम तो केवल वेदों में विश्वास रखते हैं
एक जगह ऋषि भारद्वाज कहते हैं कि यह ऊंच-नीच वाली बात कहां से आ गई ? मनुष्य तो सब एक से ही लगते हैं , वे अलग-अलग कैसे हो गए ? महात्मा गांधी भी यही कहा करते थे कि वर्णों में किसी को ऊंचा और किसी को नीचा मानना तो सही नहीं दिखता
कलियुग की , शूद्रों की और स्त्रियों की जय बुलाते हुए महर्षि व्यास कलियुगी काल की एक व्याख्या कर रहे हैं
ग्रन्थों के साथ बंधना भारतीय परंपरा का अंग नहीं है
सभ्यताओं की दिशा का निर्धारण तो सभ्यताओं के सहज मानस , चित्त व काल पर विचार करके ही होता है
आज के समय को भारतीय सभ्यता के लिए संकट का काल माना जाना चाहिए
और इस संकट से उबरने के लिए पर्याप्त साधन , समय व शक्ति जुटाने के प्रयास हमें करने चाहिए
अपने आप में , अपने चित्त व काल में स्थित और अपनी दिशा में अग्रसर भारतीय सभ्यता का आज के विश्व के साथ क्या सम्बन्ध होगा और उस सम्बन्ध को कैसे स्थापित किया जाएगा , उसकी कुछ अल्पकालीन योजना भी हमें बनानी पड़ेगी
१ . स्वाधीनता से वंचित होने की चिन्ता भारतीय समाज , भारतीय मानस , भारतीय समाज व्यवस्था को तथा यूरोपीय समाज और वहाँ की व्यवस्था और मानस को , पिछले दो-ढाई सौ वर्षों में हुई इन दोनों की टकराहटों को और उससे भारत पर पड़े विभिन्न प्रभावों को समझने का कुछ प्रयास मैं करता रहा हूँ
सर शंकरन नायर ने ईस्वी १९१९ में लिखा था कि अन्त्यज आदि की सामाजिक आर्थिक दशा में मुख्य गिरावट विगत डेढ सौ वर्षों में ही हुई है तथा भारतीय समाज के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में उल्लेखनीय ह्रास इसी अवधि में हुआ
१९४४ ईस्वी में गांधीजी ने कहा भी था कि जब मैं भारत लौटा तो मैंने उन्ही भावों और विचारों को अभिव्यक्ति दी , जो कि भारतीय अपने मन में स्वयं पहले से जानते थे और अनुभव करते थे
यह भी सत्य हो सकता है कि जिन प्रमुख अभिजनों ने गांधीजी का नेतृत्व स्वीकार किया और उसके द्वारा राज-सत्ता एवं राजनैतिक सत्ता प्राप्त की , वे गांधीजी की भारतीय समाज की समझ को बहुत गंभीरता से नहीं ग्रहण करते थे और वे यह स्वीकार कर पाने में भी असमर्थ थे कि वैसा कोई भारतीय समाज आधुनिक विश्व में व्यवहार्य हो सकता है
प्रमादपूर्ण अद्वैतवाद से भरे मानस में संसार को ठीक से जानने के प्रति अनिच्छा का उभार हो जाना विशिष्ट भारतीय विकृति है
इस्लाम के अनुयायियों से हजार वर्ष लंबे समय तक सम्बन्ध होते हुए भी इस्लाम के स्वरूप को भी बौद्धिक स्तर पर समझने का कोई प्रयास भारत में पिछले दो सौ-तीन सौ वर्षो में भी नहीं हुआ दिखता है
लेकिन इन्हीं दिनों में योरपीय भारत में प्रभाव बढ़ाने लगे
स्वामी विवेकानंद का व्यक्तित्व कई अर्थों में इससे भिन्न था और प्रतिभा , शास्त्र-ज्ञान एवं संवेदना में भी वे अधिक उन्नत थे
परिव्राजक , यायावर , संन्यासी विवेकानंद निरंतर घूमते रहे
किन्तु व्यवहार-कुशल बुद्धि से वे देखते हैं कि कहां किस तरह का संवाद अर्थमय होगा , सम्प्रेष्य होगा
तुलसीदास को अवश्य अपने ही पंडित बंधुओ से सर्वाधिक प्रताडना सहनी पडती है
लेकिन ऐसा लगता है कि यह वर्ग मानसिक दारिद्र से त्रस्त और मलिन हो गया था , जिसका अनुभव विवेकानंद को हुआ
भारत की छवि नई 'इंडोलॉजी' की रचना थी
महात्मा गांधी में ऐसा हीनता और ग्लानि का भाव लेशमात्र नहीं था और उनके नेतृत्व में पूरा देश एक होकर उमड पडा
एक धारा बृहत समाज की थी , जिसके सबसे सशक्त नेता गांधीजी हैं
सार्वजनिक स्कूलों की चाहे जो दशा थी , किन्तु आक्सफोर्ड , कैम्बिज एवं एडिनबर्ग इंग्लैंड के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय थे
उन्नीसवीं शती के आरंभिक वर्षो में कुल छात्र ७६० थे , १८२०-२४ में यह संख्या १३०० तक जा पहुंची
वाल्टेयर , एबे रेनाल , जां सिलवां बैली जैसे यूरोपीय विद्वान लोगों के प्रभाव को ग्रहण कर ब्रिटेन में भी एडम फर्गुसन , विलियम राबर्टसन , जान प्लेफेयर और मैकनोची आदि ने भारतीय राज्य , राजनीति , समाज जीवन , सामाजिक सम्बन्ध आदि का विस्तृत विवरण प्राप्त करने में गहरी रुचि दिखाई
अपने समाज को सभ्य बनाने के साथ ही विश्व को भी सभ्य बनाना है - यह उनका लक्ष्य था
इस पर अनुमान लगाते हुए एडम ने लिखा कि औसतन हर ६३ लड़कों के लिए एक स्कूल बंगाल-बिहार में है
फरवरी , १८२६ में मद्रास के कलेक्टर ने रिपोर्ट भेजी की उसके क्षेत्र में २६ , ९६३ विद्यार्थी अपने घरों में पढ रहे हैं
खेती और सिंचाई की व्यवस्था में भारत अति प्राचीन काल से समुन्नत रहा है तथा १८ वीं शती ई . में फसलचक्र , खादप्रयोग , वपित्र से बुवाई तथा अन्य उन्नत कृषिप्रौद्योगिकी का भारत में प्रचुर उपयोग होता था
हमारे गाय-बैल पर्याप्त हृष्टपुष्ट होते थे
मुस्लिम शासित हैदराबाद तक में , १७८० ई . में , एक निरीक्षण निपुण ब्रिटिश अधिकारी ने अनुभव किया कि वहां के अभिजनों और उनके सेवकों के बीच देख कर भेद कर पाना बहुत कठिन है
जैसे कि वर्नाकुलर स्कूल शिक्षक , मठम् , सिद्धम् , उद्घोषक , बनिया , फकीर , तेल बेचने वाले , बेटिटियान , मस्जिद इत्यादि के लिए
उसी अवधि में पूरे देश में ऐसे स्थानों व संस्थाओं की संख्या ३ लाख के लगभग रही होगी
इस प्रकार इन आंकड़ों , एवं विवरणों से एक ऐसे राजनीति-तंत्र ( पालिटी ) का रूप उभरता है , जो महात्मा गांधी द्वारा व्याख्यायित उस 'सागरीय वृत्त वाले बोध से मिलता-जुलता दिखता है , जिसमें गांधीजी के विचार से सबसे भीतरी वृत्त सर्वाधिक आंतरिक स्वायतत्ता प्राप्त किये रहता है तथा बाहरी वृत्तों को वैसे वित्तीय , नैतिक तथा अन्य सहायता व समर्थन प्रदान करता रहता है , जो कि उन अन्य बचे हुए कामों की पूर्ति हेतु इन बाहरी वृत्तों के लिए आवश्यक हैं , जो काम स्थानीय स्तर पर संपन्न नहीं किये जा सकते
ये तीन वर्ग हैं-पहला अधिक समृद्ध लो गों का ( कुल जनसंख्या २ , ५९ , ५६८ ) , दूसरा मध्यम साधनों वाले परिवार ( कुल जनसंख्या ३ , ७२ , ८८७ ) तथा तीसरा निम्न वर्ग ( कुल जनसंख्या २ , १८ , ६८४ )
मेवाड १८१८ ई . में ब्रिटिश संरक्षण में लिया गया
उसने यह भी लिखा था कि कुमाऊँ गढवाल में यह प्रथा इतनी प्रसिद्ध हो गई थी कि कुमाऊँ गढवाल के तत्कालीन कमिश्नर टी . एच . बैटन ने सोचा कि इसे समाप्त करना बेतुका तो होगा ही , साथ ही शिमला के शीर्षस्थ अधिकारियों द्वारा अपनायी गयी नीतियों के अनुरूप भी नहीं होगा
उत्तरी , मध्य व दक्षिण अमरीका में तो यूरोप की इस विनाश लीला की शक्ति के टकराव से वहां की ९९ प्रतिशत जनसंख्या समाप्त हो गई
पराजय , विकृति या रोगों का ही स्मरण करते रहना स्वास्थ्य-लाभ में बाधक बनता है
हम आज देखते हैं कि आत्मबल एवं इच्छा तथा तदनुरूप खडी की गई व्यवस्था के बल पर जापान सशक्त बनकर उभरा
गांधीजी ने आत्मबल एवं इच्छाशक्ति से समाज को संगठित करना प्रारंभ किया तथा समाज के आत्मबल और इच्छा को जगाया
फलत: प्रगाढ देशप्रेम एवं संस्कृतिप्रेम होने पर भी वे यूरोपीय मनीषा और भारतीय मनीषा के आधारभूत अन्तरों को पहचान नहीं पाए
उन्हें मात्र भिन्न-भिन्न देश-काल के प्रति एक ही सार्वभौम और एकरूप मानवीय चेतना की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएं या 'रेस्पांसेज' मानना जीव की शक्तियों की अवहेलना करना है
रेस्पांसेज स्मृति और संस्कार के आधार पर होते हैं
पुरानी सभ्यताओं में से चीन और भारत का उल्लेख किया जा सकता है , जो अभी भी सक्रिय हैं
ग्रीक काल से ही यूरोपीय सभ्यता इन्हीं आधारों पर टिकी रही है
अवेहलना और टकराहट की यह स्थिति दूर करनी होगी
जिसका परिणाम यह भी होने लगा कि खेती की पैदावार घटने लगी , लोगों की खपत की शक्ति नहीं के बराबर रह गयी और हर जगह भुखमरी , दारिद्म व कंगाली दिखने लगी , जिससे लोगों में ब्रिटिश राज्य के प्रति अरुचि और क्रोध बढ़ता ही गया
इसी समय कुछ लोहे व इस्पात के यूरोपीय ढंग के कारखाने भी स्थापित हुए , १९४७ ईस्वी तक कपडे व शक्कर बनाने के कारखाने तो भारत में काफी बनाये जा चुके थे
हो सकता है , भारत के सैकड़ों व हजारों गांवों में जो आग पर चलने की प्रथा आज भी प्रचलित है- आज से सौ वर्ष पहले तो यह उत्सव कम से कम दक्षिण व मध्य भारत के हर क्षेत्र में मनाया जाता था-वह भी दस बीस वर्ष के बाद भारत के अभिजनों के लिये ही रह जाये
ऐसा हम कैसे होने दें
एक भाग है उन आधे प्रतिशत लोगों का , जो भारत के तंत्र और साधनस्रोतों को नियंत्रित करते हैं और दूसरा है उन ९९ . ५ प्रतिशत का ( इनमें से १५-२० प्रतिशत शायद आधे फीसदी के सहायक व नौकर माने जा सकते हैं , और सुरक्षा व अधिकाधिक आमदनी का लोभ इन्हें काफी समय तक बाकी ८०-८५ प्रतिशत से अलग रख सकता है ) , जो केवल अपने सीमित व अवशिष्ट बल पर जी रहे हैं और जिनका किसी भी तरह का बौद्धिक व सामाजिक सम्पर्क भारत के शासक वर्ग व 'आफिसर क्लास' से नहीं है
अर्थशास्त्र सदा से राजनीति शास्त्र की एक अधीनस्थ विद्या है
यूरोपीय दृष्टि में समस्त मनुष्य तथा अन्य समस्त जीव एवं वनस्पति , वन , भूमि , जल , खनिज इत्यादि साधनस्रोत शासकों के विचार और व्यवहार रूपी सभ्यता के संसाधन हैं
समस्त देश को अर्थशास्त्र से नियन्त्रित रखना चाहता है इसमें वह दास्य - भाव से भरी बुद्धि ही प्रमुख कारण है
पुरुष नये संस्कारों , नयी संस्कृति के प्रभाव में आते गये
इसी तरह चेचक का टीका ब्रिटेन में पहली बार १७२० में तुर्की से सीख कर लाया गया
जापान ने २० वीं शती ई . के आरम्भ में पश्चिमी व्यवस्थाओं , तकनीकों और उत्पादनों का अपने ढंग से गहराई से निरीक्षण किया
गोवंश के प्रति श्रद्धा भाव तो अब भी है , परन्तु गोवंश निरन्तर घट रहा है और उस पर हमारे सभ्य समाज में कोई बेचैनी या चिन्ता नहीं दिखाई पडती
भारतीयता के तथा भारत से जुड़े क्षेत्रों के मुख्य लक्षण समान हैं
समग्र सत्ता ही जीवन है
मनुष्य का गौरव सबके प्रति मैत्री , प्रेम तथा करुणा की अभिव्यक्ति और अनुभूति में ही है , हमारी चाक्रवर्त्य की धारणा तक में दूसरों के समक्ष वीरता के प्रदर्शन का भाव ही प्रधान है , उनके गौरव को समाप्त करने का नहीं
अपने देश के ८० से ९० प्रतिशत लोगों के प्रति हम अभी की तरह उदासीन बने रहें और उन सब लोगों को घुट-घुटकर जीने के लिये विवश करने वाली अपनी वर्तमान जीवनशैली जारी रखें
क्या अंग्रेजों ने भारत के बौद्धिक वर्ग के पश्चिमीकरण को अपने सुरक्षा कवच की तरह इस्तेमाल किया और जब सत्ता देने की बारी भी आई तो सत्ता उन हाथों में सौंपी गई जो पश्चिमपरस्त थे और जिनको अपने देश के विकास के लिए स्वदेशी मॉडल बनाने में कोई रुचि नहीं थी ? क्या सत्ता हस्तान्तरण को भी औजार के रूप में इस्तेमाल किया गया और नेहरू इस काम में अंग्रेजों के नजदीकी मददगार बने , पर सत्ता और सत्ता को संभाल सकने की जो बुनिदायी चतुराई उनमें थी , उसने उनको बेनकाब नहीं होने दिया ?
मुसलमानों का कब्जा तो १२०० से शुरू हुआ
मुसलमानों को अंग्रेजों की तरह जिला-जिला पहुँच कर प्रशासन की सीढ़ी बनाना नहीं आता था
लिहाजा स्वदेशी की जो अवधारणा या कार्यरेखा बनती है , ढेर सारी चीजों को बटोर कर अंग्रेजों के सामने , तो वह एक बड़ी ताकतवर चीज के रूप में रख दी जाती है , उसका एक ढाँचा भी खड़ा कर दिया जाता है , पर मामला ऊपर ही ऊपर है , जड़ें नदारद हैं
इसलिए यह ताज्जुब की बात नहीं कि हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा आज जीन्स और स्कर्ट पर जीने लगा है
वे तो इस बात की चर्चा में लगे हैं कि आने वाले भारत को किस तरह का बनाया जाना चाहिए
प्रारम्भ में ५० , ००० जातियों की गिनती है
यह आत्मविश्वास पश्चिमीकरण की गति को तेज़ भी कर सकता है
इसी सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि संविधान सभा में नवम्बर १९४८ में इस प्रश्न पर गरम झड़प हो गई थी कि संविधान में भारतीय गाँवों का स्थान क्या हो ? संविधान का मसविदा वकीलों की एक समिति ने तैयार किया था
नियोजित विकास की उपलब्धियों के मूल्यांकन के लिए या विक्षोभ की पद्धति को समझने के लिए भी , शायद यह जरूरी है कि भारत के हाल के अतीत में कुछ झांका जाय
इस क्रियाशीलता से हिन्दुस्तान से अभाव , दरिद्रता और पराश्रय के समुद्र के बीचों बीच पश्चिमीपन और अति समृद्धि के कुछ सौ नखलिस्तान तथा परकीय अन्तःक्षेत्र विकसित हो गये हैं तथा समस्त नैतिक आचरण और मानदण्ड क्षतविक्षत हो चुके हैं
इस प्रकार हम दैनन्दिन जीवन में सहभागिता और सृजनात्मकता का प्रवर्तन कर सकते हैं तथा एक या दो दशकों में अपने समाज को पूर्ण स्वस्थ बना सकते हैं
काफी पुराने समय से भारत के लोग अपने आपको गांव , कस्बे या तीर्थों को केन्द्र बनाकर अथवा जाति या उद्योग-धंधों को केन्द्र बना कर संगठित करते रहे हैं
लेकिन ऐसे मामलों में भी उनकी शक्ति मुख्यत: प्रशासनिक ही थी
समाज की बुनियादी इकाईयां जीवनमरण के संघर्ष में पड़ गईं , और अपने भीतर सिकुड़ती चली गयीं
१९४६ से १९४९ के बीच स्वतंत्र भारत का संविधान जिस तरह तैयार किया जा रहा था उससे भी इन परिस्थितियों को समझा जा सकता है
यह भी अत्यन्त आवश्यक है कि भारतवर्ष जल्दी से जल्दी विदेशों से अनाज , तेल और खानेपीने के दूसरे सामान लेना बन्द कर दे
जहाँ तक भारतवर्ष की बात है उसका पहला काम तो आज आत्मसम्मान , साहस , परस्परता और समूहिक स्वतंत्रता को देश में स्थापित करना है
लेकिन चीन ने बारुद बनाने की विधियों से उत्सवों आदि में काम आने वाली आतिशबाजियां व पटाखे बनाए , जबकि यूरोप ने अब से पांच छ: सौ वर्ष पहले वही विधि जानकर युद्ध और हिंसा के लिए हथियार बनाये
संयुक्त राज्य अमेरिका में रेड इंडियनों ( वहाँ के मूल निवासियों ) की गणना पुरानी जनगणनाओं में कभी की ही नहीं जाती थी , क्योंकि यूरोप से आए लोग रेड इंडियनों को मनुष्य नहीं मानते थे
आज की स्थिति में यह विचारणीय एवं आवश्यक लगता है कि भारत में बृहत् समाज को समुचित साधन व स्वतंत्रता मिले , जिससे बृहत् समाज की इकाइयां अपनी मान्यताओं , व्यवस्था की अपनी प्रणालियों और अपने तकनीकी ज्ञान के आधार पर चल सकें
वैसे इंग्लैंड में ७०० वर्षो से जमींदार होते रहे थे , लेकिन ये जमींदार किसान से कुल फसल का ५०-८० प्रतिशत तक लगान के रूप में ले लेते थे , सरकार को कुल फसल का लगभग १० प्रतिशत देते थे
इसके साथसाथ ही जमीन का लगान अंग्रेजी व्यवस्था ने तिगुना चौगुना बढ़ा दिया और सन् १७९० के आसपास जमीन की मिल्कियत कुछ थोड़े से लोगों को दे दी , जिन्हें जमींदार कहा गया
इसी बीच सन् १८२९-३० के बर्षो में यह भी तय किया गया कि अंग्रेजों और दूसरे यूरोपीय लोगों को भारत में जहाँ तहाँ , विशेषत: पर्वतों पर , ठंडी जगहों पर बसाया जाये
१९४२ में 'भारत छोडो' आन्दोलन में भाग लिया
( प्राचीन हिंदू साहित्य में उसे 'श्वेतद्वीप' कहा गया है
परंतु विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि इसमें ०° रेखांश श्याम नहीं परंतु बनारस था
हर्षल ने २८ अगस्त , १७८९ को छठे उपग्रह की खोज की
टीकाकरण विभाग के सुप्रीन्टेन्डन्ट जनरल के अनुसार लोगों के एक हिस्से का 'गरीबी के कारण' अथवा सैद्धान्तिक दृष्टि से' ( १८०० के आसपास ) टीकाकरण नहीं किया जा रहा था |३२ ऐसा लगता है कि "सैद्धान्तिक दृष्टि से' टीकाकरण न करनेवाले कोलकता के यूरोपीय थे
शेफील्ड में , उत्तम प्रकार से निर्मित वात भट्टियाँ कच्चा फौलाद पिघलाने में कम से कम चार घण्टे लेती हैं
अठारहवीं शताब्दी में भारत के अलग अलग भागों में ऐसी कितनी भट्ठियाँ कार्यरत रही होंगी उसका अनुमान लगाना कठिन है
इन प्राचीन खण्डित अंशों का अध्ययन सफलतापूर्वक सूचित करता है कि भारत में कम से कम बीजगणित का अस्तित्व था
इस सत्य को मानकर चलें तो भी उनकी ज्ञानशाखा का पतन अति शीघ्रता से हुआ होगा , क्यों कि वर्तमान समय में मात्र दो दशक पूर्व भारत में पर्याप्त आभा के साथ विज्ञान प्रकाशवान था यह स्पष्ट है'
'एक अत्यंत कठिन कूटप्रश्न का १२०० से अधिक वर्ष पूर्व एक भारतीय बीजगणितकार द्वारा दिया गया हल , यूरोप जिनके लिए गर्व कर सकता है ऐसे १८वीं शताब्दी के अंत के नैसर्गिक लाक्षणिकताओं और शोधवृत्ति रखनेवाले दो अति विख्यात गणितशास्त्रियों के साथ स्पर्धा कर सकता है
लोहे और फौलाद की भट्ठियाँ अथवा हलफाल जैसे साधन छोटे और सादे होने के पीछे यथार्थ में सामाजिक और राजकीय परिपक्वता थी और साथ ही उससे जुड़े सिद्धान्तों और प्रक्रियाओं की समझ से उनका उद्भव हुआ था
इतनी अद्भुत रूप से अचूक है , इस यंत्र की कार्यपद्धति ! और जब इस रचना की तुलना हिन्दुस्तान के आज के कारीगरों की कृतियों के साथ की जाती है तब वह अत्यधिक अद्भुत और अद्वितीय लगती है ! निसंदेह , ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्व में विज्ञान के साथ साथ कलाओं का भी इतना ही ह्रास हुआ होगा
परन्तु केन्द्रस्थ वर्तुल में अधिक छोटे प्रतिविभाग नहीं हैं
आकृति 'घ' में प्रदर्शित यंत्र में दो समकेन्द्री वृत्ताकार दीवारें हैं , जिनमें से बाहर की दीवार ४० फुट व्यास की और आठ फुट ऊँचाई की , और अंदर की लगभग आधी अर्थात् चार फुट ऊँची है
क्योंकि भारतीय खगोलशास्त्र के पास महान समस्याओं के समाधान हेतु पर्याप्त गहराई और सूक्ष्मता है ही
वास्तविकता यह है कि 'भारतीय खगोलशास्त्र'" पुस्तक के अध्ययन से उसके कर्ता की शक्ति और विद्वत्ता पर संपूर्ण आदर उत्पन्न होते हुए भी , कुछ ऐसी वैज्ञानिक अश्रद्धा के साथ मैंने अध्ययन करना आरम्भ किया क्यों कि विज्ञान में जो कुछ नया और असामान्य है उसकी गिनती और तर्क के निकष पर पूर्ण सावधानी और सतर्कता से परीक्षा होनी चाहिए ऐसा मुझे लगता है
उनमें से अधिकतर तारों के समूह से बने हैं
११ उन्होंने इस गति की गणना प्रतिवर्ष ५४'' की है और तदनुसार इन स्थिर तारों का एक चक्र समाप्त करने में २४ , ००० वर्ष लगेंगे
भूम्युच्य बिन्दु राशिचक्र के आरंभ बिंदु से ८०° आगे है और स्थिर तारों की पश्चात् भू पर अपना स्थान बनाये रखता है अथवा यों कहें कि , उसके जितनी ही गति से चलता है , ऐसी धारणा है
श्रीयुत् बेइली त्रिवेलूर के कोष्ठकों की तुलना कृष्णापुरम् के कोष्ठकों के साथ करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि इन दोनों में से प्रथम ( त्रिवेलूर ) का ग्रंथकाल १७ और १८ ४४ फरवरी के बीच की मध्यरात्रि , वर्ष ३१०२ ईसा पूर्व है
उनकी तारीख है , २४ जुलाई १४३७ , मध्याह्न और स्थान है मध्य एशिया का समरकंद
जैसे कि कृष्णापुरम् की सारिणियों के अनुसार गणना की गई चन्द्र की गति ( ४३८३ वर्ष ९५ दिन में ) त्रिवेलूर सारिणियों के अनुसार गणना की गति से ३०-२'-१०'' कम है
इस महत्त्वपूर्ण योगानुयोग के आधार पर हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि कम से कम एक अवलोकन समूह , जिस पर यह कोष्ठक आधारित है कलियुग प्रारंभ की तुलना में कम पुरातन न हो ऐसी अति उच्च संभावना को भी पूरी तरह से नकारी नहीं जा सकती है
अंतर केवल इतना है कि वे जिस युग का अनुकरण करते हैं , उनके बीच में पाँच हजार वर्षों का अंतर है
फिर , इस से यह भी सिद्ध होता है कि गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त भी ईसा से तीन हजार वर्ष पहले उनके पास था
४८ . ग्रहण-गणना के दूसरे भाग में भूमिति के एक बहुत ही प्रसिद्ध सिद्धान्त का सीधा ही उपयोग किया गया है
ये प्रक्रियाएँ मूल रूप से दो बातों पर आधारित हैं; एक तो ग्रहण की घटना में क्या होता है उसकी संकल्पना और दूसरा एक प्रमेय जो कहता है कि समकोण ( ९०° ) त्रिकोण में कर्ण की लंबाई का वर्ग अन्य दो भुजाओं की लंबाइयों के वर्ग के जोड के बराबर होता है
एक ग्रहण में वे पृथ्वी की छाया का चन्द्र तक के अंतर का छेद चन्द्र व्यास से पाँच गुना अधिक मानते हैं
पहले के संदर्भ में श्याम के कोष्ठकों का श्रीयुत् कोसिनी का निरीक्षण है कि यह संस्कार भृम्युच्च बिन्दु से मध्यम अंतर के साइन ( ज्या ) के गुणोत्तर का अनुसरण करता है
इतना ही नहीं , ये अवलोकन सूर्य और चन्द्र के संस्कारों पर भी चरितार्थ हैं
वास्तव में क्षतिमुक्त नियम प्राप्त करने के लिए नियम का उपयोग तब करना चाहिए जब लंबन शून्य हो और मंदफल वार्षिक संस्कार न हो
यह आदानप्रदान या संदेश व्यवहार के भारत से ग्रीस की ओर जाने की संभावना अधिक है , उससे उल्टे की नहीं
और यह सब होते हुए भी खगोलशास्त्र की पद्धतियाँ इतनी अधिक वैविध्यपूर्ण हैं जिसकी कल्पना भी नहीं हो सकती है
३ ३ . भारतीय घण्टे , मिनिट , अर्थात् घटी , पल ३४ . वही ३५ . Med . Acad . Scien . ११ पृ . १८७ Asc . Ind पृ . ७६ ३६ . भारतीय कालगणना को यहाँ यूरोपीय कालगणना में रूपांतरित किया गया है
यहाँ भी चन्द्र का आरोहपात 'राक्षस' के रूप में पहचाना जाता है
तब भी , सामान्य रूप से , नियमों में उपयोगी शब्दों के अनुपात में तार्किक है
यह शब्द दो शब्दों से बना है: 'अयन' अर्थात् मार्ग और 'अंश' अर्थात् भाग
मंदफल संस्कार का साधन खोजने के लिए आधा 'शीघ्रम' संस्कार और आधा मंद' संस्कार उपयोग करने की पद्धति पर से श्रीयुत् बेइली अपना निष्कर्ष देते हैं
श्रीयुत् बेइली एक विलक्षण परिच्छेद उद्धत करते हैं , जिसमें मसौदी नाम का बारहवीं शताब्दी का अरब लेखक लिखता है कि , 'ब्रह्मा' ने 'सिंद - हिंद' नामक पुस्तक लिखी थी जिसके आधार पर 'माहिस्ती' नामक पुस्तक लिखी गई और अंत में उसके आधार पर टोलेमी का 'आल्माजेस्ट'
जैसे कि न्यूटन , सिम्पसन , वाम्सले और सिल्वेइन बेइली की धारणा है कि सूर्य एवं चन्द्र की गुरुत्वाकर्षी असरों के कारण विषुववृत्त अपने स्थान पर नहीं है; फलत: वह पुराने अक्ष के आसपास की नई स्थिति में प्रदक्षिणा करती है
जब कि दूसरी ओर इलाम्बर्ट , ओइलर , ला'ग्रान्ज और टीशीयस का मानना है कि इस असर का परिणाम नया विषुववृत्त है , जो नये अक्ष के आसपास भ्रमण करता है
यहूदी अमावस्या के दिन बछड़े की पूजा करते , नक्षत्रों की रानी के लिए 'केक' बनाते और तुरही बजाते थे
वर्तमान आधुनिक ब्राह्मण जिस पद्धति को अपनाते हैं उसे अथवा तो पालन करते हैं उस पद्धति के अवलोकनों पर कोई प्रभाव पड़नेवाला नहीं है , क्यों कि अवलोकन किसी सम्प्रदाय या पंथ के नहीं होते हैं , तथ्यगत होते हैं; वेधशाला चाहे टोलेमी पद्धति की हो या कोपरनिकन पद्धति की , यदि वह संख्या बहुत बड़ी हो और बहुत सावधानीपूर्वक तैयार की गई हो तो वह आधुनिक खगोलशास्त्र की अति महत्त्वपूर्ण सेवा मानी जाएगी; भले ही पृथ्वी को स्थिर माना जा रहा हो या गतिशील
यों कहा जाता है कि जगत जिसे 'टोलेमी प्रणाली' के रूप में जानता है उसे हिन्दुओं के एक विजेता विक्रमजीत ने पूर्व में प्रचलित किया था और उस परम्परा में विश्व की सभी सही प्रणालियाँ विस्तृत हो गई थीं
मंगल और बृहस्पति को छोड शेष सभी ग्रहों के लिये अंक दिये गये हैं
बंदूक में प्रयुक्त होनेवाले विस्फोटक , अतीत की तुलना में नया आविष्कार माना जाएगा , परंतु ग्रे के बंदूकशास्त्र ( गनेरी ) पुस्तक में उल्लेख है कि वह सिकंदर के समय में भी बंदूकों में प्रयुक्त होता था
जब हम संस्कृत का कुछ ज्ञान प्राप्त करेंगे तब हम बहुत से महत्त्वपूर्ण शोध कर पाएँगें तथा उपर्युक्त कथन का समर्थन अथवा खण्डन कर पायेंगे
5 दरवाजे एक साथ खोलने की पद्धति 70 × 4 / 5 = 56 होगी | 6 दरवाजे एक साथ खोलने की पद्धति = 56 × 3 / 6 = 28 होगी
ध्रुवों को परिवर्तित करने के संदर्भ में कदाचित लिखने योग्य एक अवलोकन है; जिसे छोटे चट्टानीय झींगे कहते हैं जो सामान्यत: पानी के सर्वोच्च स्तर के लगभग एक फुट तक की ऊँचाई में मर जाते हैं
श्री डेविस हिन्दुओं की खगोलशास्त्रीय गणनाओं को सर्वप्रथम सार्वजनिक रूप से लोगों के समक्ष रखनेवाले व्यक्ति हैं
भास्कर के सर्वाधिक तेजस्वी ने आर्यभट्ट के एक परिच्छेद को उद्धृत किया है
खलीफा अब्बासादी के शासनकाल में अरब खगोलशास्त्रियों को भारतीय खगोलशास्त्र विषयक जो जानकारी मिली उसके अनुसार , वे जानते थे कि उन दिनों हिन्दुओं में तीन अलग-अलग खगोल प्रणालियाँ प्रचलित थीं और उनमें से एक के साथ आर्यभट्ट का नाम सहज परिवर्तित रूप में भी , सर्वथा अपरिचित नहीं था
इससे , निष्कर्ष यह निकलता है कि अबुल फरीज के प्रमाण के आधार पर , आर्यभट्ट ग्रीक बीजगणितज्ञ डायोफेन्टस जितने ही प्राचीन होने चाहिए , जो सम्राट जुलियन के समय में अर्थात् सन् ३६० में हुए थे
अज्ञात राशियों के लिए अमुक संकेत ही निश्चित नहीं है , परंतु उसकी रुचि का क्षेत्र अत्यंत विशाल है; और उपयोग में लिये जानेवाले अक्षर रंगो के नाम के प्रथमाक्षर है; बिना प्रथम अक्षर , जो यावत्-तावत् प्रथम अक्षर अर्थात् 'या' होता है; जिसका अर्थ बोम्बीली के 'तान्तो' जैसा होता है , जिस शब्द को बोम्बीली ने भी इसी हेतु से प्रयुक्त किया है
संयुक्त राशि के पदों को उसके घातांक के घटते क्रम में दर्शाया जाता है और अचल संख्या अनिवार्य रूप से सबसे अंत में आएगी
इस प्रकार हिन्दुओं के नियम में समान संकेत प्रयुक्त करने पर इच्छित वर्गमूल प्राप्त हो जाता है , परंतु न तो ब्रोन्कर अथवा न तो वॉलिस-जिन्होंने स्वंय भी इस प्रकार की पद्धति प्रदान की है - अथवा न फर्मेट स्वयं जिन्होंने यह प्रश्न उठाया था और न तो फ्रेनिकल , इस विषय एवं उसके सार्वत्रिक उपयोग का महत्त्व समझ पाये
उनकी दोनों दिनदर्शकाएँ , धार्मिक एवं सामाजिक , सूर्य-चन्द्र की गति से नियंत्रित हैं और इन दोनों ज्योतियों की गति का उन्होंने सावधानीपूर्वक अध्ययन किया है और इतनी अधिक सफलतापूर्वक किया है कि चन्द्र का ( सूर्य के उपलक्ष्य में ) भ्रमण , जिसके साथ उन्हें विशेष सिद्धांतगत संबंध है , जितना ग्रीक प्राप्त कर पाते थे उससे भी बहुत अधिक शुद्ध है
'ग्रहों और ताराओं के निरीक्षण के आधार पर तथा खगोलीय गणनाओं को करने पर पृथ्वी पर घटनेवाली घटनाओं को पहले से ही कहा जा सकता है
इस बीमारी से ग्रस्त होने से एक या दो दिन पूर्व मरीज की भूख मरने लगती है , उसे अलग तरह की शिथिलता महसूस होती है तथा मुँह सूखने लगता है
टीकाकरण किए गए व्यक्ति को हवा से बचने के लिए कहा जाता है
मौसम में पैदा होने वाली मौसमी वस्तु तथा मौसमी फल; जैसे केला , गन्ना , तरबूज , चावल , सफेद खसखस का बना हुआ पतला दलिया , उन्हें सामान्य भोजन के रूप में खाने को कहा जाता है
कभी कभी वह एक दिन में आठ से दस घरों में टीकाकरण कार्य पूर्ण कर लेता है
इस संबंध में टीकाकरण के कार्य में प्रवृत्त ब्राह्मणों की चेचक के मरीज को बुखार आने तक ठंडे पानी से स्नान कराने की पूर्व की इस सामान्य पद्धति पर कुछ भी कहने के लिए हमें इस प्रथा के कुछ तर्कपूर्ण आधार खोजने होंगे क्योंकि इस बीमारी में इसका उपयोग चिकित्सकीय उपचार के रूप में किया जाता है , जिसकी विधि अत्यंत सरल है
ठंडे पानी से स्नान कराने की इस पद्धति का उपयोग पूर्व के वैद्यों तथा समस्त यूरोपीय चिकित्सकों द्वारा अपनाया गया है तथा इस पद्धति का निरन्तर उपयोग करके अनुभव के आधार पर पाया है कि यह पद्धति अन्य किसी पद्धति की अपेक्षा अधिक प्रभावी पद्धति है | जहां मरीज के बचने की कोई भी आशा नहीं होती उन सभी मामलों में भी इसकी उपयोगिता अवश्यंभावी है
इस बीमारी में शरीर के अंदर के विकारकारक विषाणु त्वचा पर फुंसियो के माध्यम से मवाद के रूप में शरीर से बाहर निकल जाते हैं तथा शरीर के अंदर से शरीर के बैरियों का समग्र निष्कासन होना भी स्वास्थ्य के लिए लाभकर होता है क्योंकि यदि उन्हें शरीर से बाहर न निकाला जाए तो ये शरीर के किसी अन्य तंत्र में जाकर गड़बड़ी पैदा करके संकटपूर्ण स्थिति का निर्माण कर देते हैं
बर्फ तैयार करने की इस प्रक्रिया का भौतिक कारण यह बताया जा सकता है कि थर्मामीटर मौसम की गरमी को कुछ भी क्यों न बताए , कुछ भागों में जहाँ ठंड के मौसम में दिसंबर , जनवरी एवं फरवरी के महीनों में कडाके की सर्दी भले ही शून्य तापमान पर क्यों न पहुँच जाए , गड्ढो में रखे बर्तन में रंध्रयुक्त मिट्टी के बर्तनों में रखा पानी इस स्थिति में जमीन की गरमी के होने के बावजूद भी जम जाएगा तथा प्रात: काल के पश्चात् गर्मी पड़ने के समय तक जमा रहेगा
मैंने पहले भी स्वयं पर्यवेक्षण किया है कि गड्ढो में इस विधि से रखे पात्रों में बर्फ उन रातों में अधिक रूप में जमी जब मौसम स्वच्छ तथा निरभ्र रहा था तथा आधी रात के पश्चात् ओस पड़ी थी
इस कला में सभी प्रकार के वृक्ष , पौधे , फल , एवं अनाज उगाना समाहित है
उनकी जीवनशैली के कारण कृषि उन्हें प्रिय है
दोनों लोगों के बीच प्रथाओं में कृषक के अधिकारों को कानूनी मान्यता प्राप्त है
उनकी यह भत्सर्ना भारत के सभी भागों की कृषि पर लागू नहीं होती क्योंकि वहाँ विभिन्न रूपों एवं प्रकारों के कृषि यंत्र उपयोग में लाए जाते हैं
धान के पौधों के रोपण से ही अधिक लाभ प्राप्त होता है
वे कृषिकर्म में विभिन्न प्रकार के हलों का उपयोग करते हैं जिनमें बुवाई वाले हल और सामान्य हल दोनों हैं , जिनका उपयोग वे बीज एवं जमीन के अनुसार करते हैं
गुजरात में संपत्ति की सुरक्षा को कभी नजरंदाज नहीं किया जाता था
स्थानीय विशिष्टताओं , स्थानीय दवाबों एवं साधनों की कमी के कारण कई बार किसान कई लाभों से वंचित रह जाता है
गर्मी की ऋतु से पूर्व यहाँ के लोग जमीन को मोटा-मोटा जोतते हैं क्योंकि गर्मी की ऋतु में अपनी उर्वर जमीन को जोतने से उसके आवश्यक उर्वरक घटक सूर्य की गर्मी से अंदर तक प्रभावित होंगे
यह भी सही है कि गुजरात में अधिकांश जमीन अत्यंत उत्पादनक्षम है तथा यहाँ की भूमि को परत भूमि के रूप में खाली रहने देने की अपेक्षा वर्ष प्रति वर्ष नियमित रूप से क्रमश: अच्छी फसलें पैदा करने के लिए उपयोग में लाया जाता है
भूमि को सामान्यत: अच्छी तरह से बाड़ लगाकर उपविभाजित किया गया है | लम्बे , सँकरे तथा सुंदर दिखनेवाले आकर्षक रूप में विभाजित किए गए खेत वास्तव में प्राकृतिक विभाजन जैसे लगते हैं
धान के खेत में पानी का स्तर विशिष्ट स्थिति पर निर्भर करता है
इस स्थिति में हल चलाने के लिए पशुओं का अधिक उपयोग किया जाता है
दूसरे की अपेक्षा पहला भारी होता है
दक्षिण फ्रान्स में तथा गर्म देशों में इसी प्रकार के हल प्रयुक्त होते हैं
एशिया के लोगों की तरह ही प्राचीन काल के लोगों ने जुताई में केवल बैलों का उपयोग किया
पहली में मिट्टी में उर्वरता की मात्रा कम होती है; इसमें हाथ से समतल करने पर गड्ढे के वे निशान गायब होकर उस खेत के समतल के साथ वे ऐसे समतल हो जाते हैं जैसे वहाँ थे ही नहीं
यह देखा गया है कि यद्यपि हिंदू मुख्य रूप से शाकाहारी भोजन करते हैं वे उद्यान विज्ञान से अत्यंत कम जुडे हुए होते हैं तथा उद्यान भी कम ही लगाते हैं
ऋतु की संभाव्यता के लिए ज्योतिषी को पूछा जाता है | ज्योतिषी मौसम की परिगणना करते हैं
ग्रामीण समाज की एक खास विशिष्टता उनका पृथक वास है
वह एक बहादुर सिपाही था
मैंने जो तीन कृषि औजार भेजे हैं उन्हें देखकर आप अच्छी तरह समझ सकेंगे कि पश्चिम में जिस तरह की बुवाई पद्धति का आज भी उपयोग किया जा रहा है वह इस पद्धति की तुलना में संभवत: अनावश्यक ही है
कमजोर बैल धान के खेत में हल नहीं खींच सकते हैं क्योंकि हल को सीधे चलाए जाने की आवश्यकता होती है
इस कच्चे लोह खनिज को बडी आसानी से निकाला जाता है क्योंकि यह गोल पत्थरों के रूप में होता है जो एक दूसरे से अलग होते हैं
ये खदानें जबलपुर , बडागाँव , पन्ना , कटोला , तथा सागर जिलों में हैं
ये भारत के मध्यभाग में अवस्थित हैं
यह सतह के पास लोहमय बालुई मिट्टी के रूप में होता है तथा किसी भी चट्टान से असंबद्ध होता हालाँकि सद्योलग्न स्तर वालुकाश्म का होता है
इसकी तलहटी सिनाइटिक ग्रेनाइट से निर्मित है तथा उसका ऊपरी भाग वालुकाश्म से निर्मित है
लोह अयस्क शुद्ध करने की पद्धति भी भारत के अन्य भागों जितनी अच्छी नहीं है
यह अपने संकेंद्रित स्तरित रंग से अलग होता है; इसका सिरा पीला होता है
जब तक हाथ एवं उँगलियाँ नापने में कुशल हैं कार्य कौशल में अभिवृद्धि होती रहेगी
समानांतर केंद्र इस भट्ठी का अत्यंत महत्वपूर्ण भाग है तथा इसके तुरंत बाद धोंकनी की हवा के झोंके के कोण को समुचित रूप से समायोजित करने का भाग है
लोह अयस्क का विषम मिश्रण ही पिघलकर अवस्कर के रूप में निकल जाता है
इस क्रिया में उपयोग किया जाने वाला काठकोयला टीक , मौवा या बाँस जैसी सख्त लकङी से बना हुआ होता है , यह इस निर्माण का एक अभिन्न अंग होता है जिस के लिए भारतीय लोह निर्माता बडी ही चतुराई से काम लेते हैं क्योंकि पहले तो वे कच्चे पदार्थ को अच्छी तरह से अकार्बनीकृत होने के लिए समय नहीं देते तथा उसके पश्चात इसके कोनों को कुरेदने की अत्यंत जोखिमभरी प्रथा उनमें प्रचलित है
मेरी चार भट्टियों में कच्चे लोह अयस्क के प्रगलन की मात्रा ३० अप्रैल से ६ जून तक ३५४१/२ मन थी तथा इसकी लागत ३०४ नागपुर या २६० कलकता सिक्का रूपए थी
इसमें केवल भट्ठी का ही नुकसान है जिसकी कींमत केवल ६ शिलिंग होती है
नोट : चौडा सिरा ३ १/२ संकरा सिरा २ १/२ का होता है जिसका औस ३ भागों में होता है
यही कारण है कि इन भट्टियों की चिमनियों पर सदैव सल्फर का आवरण चढाया जाता है जिससे यह भी पता चलता हैं कि भारतीय शोधनशाला की अपेक्षा दोनों संक्रियाओं के प्रभाव के तहत अधिक कार्बन प्राप्त होता है तथा इस कार्बन को खत्म किया जाता है और परिणामत: इससे केप्टन प्रेसग्रेव द्वारा पर्यवेक्षित अंतिम तीन अंकों की कठोरता होती है
' ( उत्पादन के शब्दकोश में ) डा . करे इसी विषय में कहते हैं कि 'दार्शनिक तो उपयोगी कलाओं के अध्ययन के प्रति उदासीन रहते हैं और प्रयोगशाला तथा सिद्धान्तों की गौण बातों में अधिक उलझे रहते हैं
१४ . देशी भट्टियों मे उपयोग की जाने वाली सामग्री भारत की सामान्यत: लाल रंग की कुम्हारी मिट्टी होती है , जिस का यदि सावधानी पूर्वक चयन नहीं किया जाए तो परावर्तक नहीं होती है
१९ . देशी भट्टियों में लगभग ग्यारह के पिंड बनते हैं जो कभी कभी दो आना के हिसाब से बिकते हैं
इस में छोटे या बडे किलीय दानेदार टुकडे दिखते हैं जो कि स्टील की निहित कठोरता की वजह से होते हैं
जो कील , घोडे़ की नाल , चटखनी , पट्टे , सिब्बल , चिमटे आदि बनाने के लिए उपयुक्त होता है जिस के लिए कोमलता की जरूरत नहीं होती परन्तु अत्यधिक संसक्ति एवं तन्यता आवश्यक होती है
देशी लोहारों का कहना है कि इस प्रकार का लोहा अत्यंत तन्य होता है
इससे अंग्रेजी लुहारों का स्मरण हो आता है क्योंकि स्टील एवं लोहे को साथ साथ मिलाने में सफेद स्फटिक रेत का विपुल मात्रा में उपयोग करते हैं
मुझे उम्मीद है कि एस्सैक्स यहां से करीब छह सप्ताह बाद जाएगा तब तक मैं इस विषय को आरंभ कर दूँगा तथा आपको अवगत करा दूँगा
उदाहरण के लिए मैं ने उनके द्वारा बनाई गई एक जोडी पिस्तौल देखी है जो कि देखने में सुंदरता की दृष्टि से किसी से भी किसी भी तरह से निकृष्ट नहीं है , और लंदन में निर्मित पिस्तौलों से सभी दृष्टि से संभवत: बेहतर ही हैं
अत: मैं आपका ध्यान थोडी देर के लिए डामर की ओर आकर्षित करना चाहूँगा जिसकी उपयोगिता वैश्विक है तथा समग्र पूर्वी दुनिया में इसका अत्यधिक उपयोग हो रहा है
उसमें इसका शीर्षक था , 'हिंदुस्तान की संस्कृति में सन या सन के पौधे की उपयोगिता: हिंदुस्तान के कागज के निर्माण की पद्धति के संबंध में लेखाजोखा'
' अध्याय १६ . मद्रास के सहायक महासर्वेक्षक कैप्टन जे . कैम्पबेल द्वारा लिखित 'दक्षिण भारत में लोह सलाख का निर्माण' १८४२ के आसपास लिखा गया था
सन् १७३६ से आगे उन्होंने कोलकता में चिकित्सा व्यवसाय आरंभ किया
पीयर्स का निधन गंगा के तट पर १५ जून १७८९ में हुआ
तत्पश्चात् उन्होंने धर्मशास्त्र का अध्ययन किया
अरविंद , सावरकर , भगतसिंह , चन्द्रशेखर आजाद जैसे कुछ क्रांतिकारी उनके समय में ऐसे सशस्त्र विरोध के साक्षात प्रतीक रहे हैं
आर . आर . दिवाकर के अनुसार प्रह्लाद , सोक्रेटिस आदि से प्रेरणा लेकर गांधीजी ने नित्यप्रति की समस्याओं के समाधान के लिए एक व्यापक , अर्ध धार्मिक सिद्धान्त अपनाया और उस प्रकार दुष्टता और अन्याय के विरुद्ध अहिंसक रूप से लडने के लिए लोगों को एक नया शस्त्र दिया
प्राचीन समय में अथवा तुर्क या मुगलकाल में राजाप्रजा का जो भी संबंध रहा हो , जेम्स मिल के मतानुसार , सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तथा अठाहवीं शताब्दी में , भारत में राजा को उसकी प्रजा भययुक्त आदर देती थी
ब्रिटिशरों ने काले पुर्तगालियों ( ब्लैक पोर्ट्जगीझ - block Portugues ) के अधिकदल की भर्ती की और कम विरोधी और अधिक विरोधी समूहों को एक दूसरे के सामने कर दिया
कल पैनूर में लगभग ११ , ००० लोग एकत्रित हो गए थे
बहुत से किस्सों में , भारत के लिए १७८४ के बाद से अति महत्त्वपूर्ण विस्तृत सूचनाओं का प्रथम मसौदा तैयार करने की जवाबदारी बोर्ड ऑव कमिश्नर्स की हो गई
) उस समय ( बंगाल , बिहार , बनारस आदि में ) जिला समाहर्ता का कार्य मुख्य रूप से राजस्व लगाने और वसूलने से संबंधित ही था
( सौजन्य : एसेज ऑन डिसओबिडियन्स , वॉर एन्ड सिटीजनशिप ( Essays on Disobedience , War and Citizenship १९७० , पू . ३२ ) महाराष्ट्र में लोगों ने ब्रिटिशों के विरुद्ध किए असंख्य 'बंध' के विषय में प्रेसिडेन्सी के राजकीय और न्यायिक अभिलेखों में बहुत सी सामग्री १८२०-४० के समय में मिलती है
बंगाल और बिहार प्रांतो में तो , पुलिस के लिए खर्च स्टैम्प ड्यूटी और अन्य करों में से किया जाता है , और बनारस में वह भू राजस्व से किया जाता है , तो फिर यह घर कर लागू करने का उद्देश क्या है ? ३ . यदि , शास्त्रों का आधार लिया जाए तो , बनारस शहर और उसके आसपास के पाँच कोस का क्षेत्र धार्मिक स्थल माना जाता है और सरकार के अधिनियम १५ १८१० अनुसार धार्मिक स्थलों को कर से मुक्ति दी गई है
' भूमिका प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा था , 'लोगों में भारी जोशखरोशी , रोष और हंगामा प्रवर्तित है; वे दूकानें बंद कर अपने दैनिक व्यापार धंधे को छोड़ कर भारी संख्या में एकत्रित हो रहे हैं और अपनी मांग तत्काल पूरी करने के लिए मुझ पर दबाव बढ़ा रहे हैं
' दिनांक ४ जनवरी तक परिस्थिति शांत होती गई और कार्यवाहक न्यायाधीश अपने द्वारा उठाए गये कदमों से जैसे कि , लोहारों को वापस बुलाने के लिये जमीदारों पर डाले गये दबाव और अन्य 'अग्रगण्य नागरिकों की ओर से मदद' से खुश था
दिनांक ४ जनवरी तक परिस्थिति इस हद तक सुधर गई कि कार्यवाहक न्यायाधीश बहुत संतोषपूर्वक स्पष्ट कर सका कि 'इस शहर के निवासी अब सरकार की सत्ता के सामने की स्थिति बनाए रखने के खतरों और आंदोलन की अनुपयोगिता को समझ गए हैं' इसके साथ किस भयावह स्थिति पर पूर्ण नियंत्रण पाया है इसका निरूपण करते हुए उसने लिखा , 'नगर के सभी प्रकार के लोग अपने अपने वर्गों में नगर के किसी स्थान पर इकट्ठे हो गए थे , अपने अपने वर्गो में विभाजित हो गए थे , उद्देश्य सिद्ध नहीं होने तक वहां से न हटने की सौगंध उन्होंने खाई थी और दिनप्रतिदिन उनकी संख्या बढ़ रही थी और संकल्प दृढ़ होता जा रहा था
समापन में लिखा गया , 'गवर्नर जनरल इन काउन्सिल पूरी संवेदना और सहानुभूति के साथ , कानून का उल्लंघन करने वाले हठी या जिद्दी लोगों को चेतावनी देना चाहते हैं कि उनका ऐसा व्यवहार जारी रहेगा तो वह राजद्रोह माना जाएगा और वे अपने लिए गंभीर स्थिति को निमंत्रित करेंगे
फिर भी ऐसे लोगों को सरकार का सदाशय क्या है यह भी समझाने की संभावना भी नहीं है
दो दिन बाद दिनांक २० को न्यायाधीश ने बताया कि परिस्थिति में 'विशेष अन्तर नहीं आया' है इसलिए 'बहुत सुधार की उन्हें बहुत कम आशा' है
उल्टे उनका तो मत ऐसा है कि इस प्रकार का आचरण भविष्य में फिर से न हो इसलिये इन अपराधियों को ऐसा उदाहरण रूप दण्ड देना चाहिये कि और कोई इस प्रकार का आचरण करने का साहस न करे
' परन्तु साथ ही , न्यायाधीश को यह भी बताना जरूरी है कि उस प्रकार की कानूनी कार्यवाही मर्यादित संख्या में ही होनी चाहिए
दिनांक ७ फरवरी के दिन बनारस के राजा द्वारा बनारस के निवासियों ने प्रस्तुत किया हुआ आवेदन न्यायाधीश को दिया गया जो उसने सरकार के समक्ष प्रस्तुत किया था
इसलिए उसके बाद के रिपोर्ट में समाहर्ता ने आग्रहपूर्वक बताया कि सावधानी के अनिवार्य कदम के रूप में यहां स्थित सैन्य दल से अतिरिक्त दल नहीं आने तक कर की वसूली शुरू नहीं की जा सकती
लेकिन साथ ही न्यायाधीश को सावधान करते हुए लिखा था कि , बनारस जैसी सभाएँ अथवा आवेदनों को अन्य नगरों के ( पटना के ) निवासियों तक फैलने से रोकने के लिए नरम और समाधानकारी कदम उठाए जाएँ , क्योंकि इससे संबंधित आगे की चर्चाओं का आधार बनारस ही होगा
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