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003 । वाल्मीकि जी का धर्म ग्रन्थ और उसके अधिकारी का वर्णन । योग वशिष्ठ महा रामायण.md

2 जनवरी

अहं बद्धो विमुक्तः स्याम् इति यस्यास्ति निश्चयः नात्यन्तम् अज्ञो नो तज् ज्ञः सोस्मिन् चास्त्रेधिकारवान् (2)

वाल्मीकि ने कहा: राम और वसिष्ठ की वार्ता-संबंधी इस धर्मग्रंथ के अध्ययन का वही अधिकारी है। जो यह अनुभव करे: “मैं बंधन में पड़ा हूँ और मुझे इस बंधन से अपने को मुक्त करना है”। ऐसा व्यक्ति न तो पूर्ण रूप से अज्ञानी होता है और न ज्ञानी ही। जो इस धर्मग्रंथ में उल्लिखित मोक्ष के उपायों पर मनन करता है वह निश्चय ही जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा पा जाता है।

मैंने पहले रामकथा लिखी थी और उसका वर्णन अपने प्रिय शिष्य भरद्वाज से किया था। भरद्वाज जब एक बार मेरु पर्वत पर गए थे तो उन्होंने इसका वर्णन सृष्टिकर्ता ब्रह्मा से किया था। कथा से अत्यधिक प्रसन्न होने पर ब्रह्मा जी ने भरद्वाज से वर माँगने के लिए कहा था। भरद्वाज ने यह वर माँगा: “संसार के सभी मनुष्यों को दुखों से छुटकारा मिले।” साथ ही उन्होंने ब्रह्मा जी से यह भी कहा: “छुटकारा कैसे प्राप्त हो इसका उपाय भी कृपाकर बतलाएँ।”

ब्रह्मा जी ने भरद्वाज से कहा, “आप वाल्मीकि जी के पास जाएँ और उनसे प्रार्थना करें कि रामकथा का वर्णन निरंतर करते रहें और इस ढंग से कथा कहें कि सुननेवाला अज्ञान के अंधकार से मुक्त हो जाए।” भरद्वाज इससे संतुष्ट नहीं हुए। फिर ब्रह्मा जी भरद्वाज को साथ लेकर मेरे पास (वाल्मीकि के आश्रम में) आए। पहले मैंने (वाल्मीकि ने) ब्रह्मा जी की पूजा-अर्चना की। इसके बाद ब्रह्मा जी ने मुझसे कहा, “हे महर्षि, आपकी रामकथा उस बेड़े के तुल्य है जिससे मानव जाति संसार रूपी सागर का संतरण कर सकेगी। इसलिए आप इस कथा का वर्णन करते रहें और इसे पूर्ण करें।” इतना कहकर ब्रह्मा जी वहाँ से अदृश्य हो गए।

ब्रह्मा जी के आदेश से मैं आश्चर्यचकित था। अपने को सँभालते हुए मैंने भरद्वाज से पूछा कि ब्रह्मा जी ने आखिर क्या कहा? भरद्वाज ने ब्रह्मा जी के वचनों को दुहराया, “ब्रह्मा चाहते हैं कि आप रामकथा को इस ढंग से प्रकट करें जिससे सभी अपने दुखों से मुक्त हों। मैं भी आपसे प्रार्थना करता हूँ कि कृपया मुझे विस्तार से बतलाएँ कि राम, लक्ष्मण आदि सभी भाइयों ने दुख से किस प्रकार मुक्ति पाई।”

तब मैंने भरद्वाज को वह रहस्य बतलाया जिसके द्वारा राम, लक्ष्मण आदि सभी भाइयों ने तथा राज-परिवार के अन्य सदस्यों ने भी मुक्ति प्राप्त की थी। मैंने भरद्वाज से यह भी कहा, “मेरे पुत्र, यदि तुम भी उनकी तरह जीवन निर्वाह करो तो तुम भी दुख से मुक्ति अभी और यहीं प्राप्त कर लोगे।”

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